Tuesday, November 25, 2014

सेहतमंद है ओर्गैनिक दूध!

ओर्गैनिक डेयरी एक तरह की समग्र फार्मिंग पद्धति है जो भारतवर्ष में अभी हाल ही में प्रारम्भ हुई है. हालांकि हमारे डेयरी किसानों द्वारा अपनाई जा रही परम्परागत पशु-पालन पद्धति ओर्गैनिक डेयरी फार्मिंग से अधिक भिन्न नहीं है जिसमें दुधारू पशुओं को सामान्यतः रसायनों, अंग्रेजी दवाओं एवं हार्मोनों के दुष्प्रभाव से दूर रखा जाता है. ओर्गैनिक से तात्पर्य है कि ऐसा प्रमाणित किया गया दूध जिसके उत्पादन में कोई रसायन, एन्टीबायोटिक अथवा कृत्रिम हार्मोनों का उपयोग न हुआ हो अर्थात जो चारा दुधारू गायों को खिलाया जाता है उसमें कीटनाशक एवं रसायन नहीं होने चाहिएं. ओर्गैनिक दूध में संतृप्त वसा की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है. यह दूध पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित होता है क्योंकि लोग इसके उत्पादन हेतु रासायनिक खादों का उपयोग नहीं करते. कुछ डेयरी किसान हार्मोन के टीके लगा कर गायों की दुग्ध-उत्पादन क्षमता बढाते हैं जो ओर्गेनिक दुग्ध-उत्पादन हेतु पूर्णतः वर्जित है. यद्यपि इन हार्मोनों के कथित दुष्प्रभाव अभी मालूम नहीं हैं तथापि लोग इनसे हर हाल में बचना ही चाहते हैं. कई डेयरियों में दुग्ध-उत्पादन बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के रसायनों का भी उपयोग होता है जबकि ओर्गेनिक दूध की डेयरी में यह प्रतिबन्धित है.
आजकल शहरों में दुग्ध-उत्पादन हेतु डेयरी गायों को बहुत ही कम स्थान पर रखा जाता है जहां इन्हें स्वतन्त्रतापूर्वक हिलने-डुलने में कठिनाई होती है. दुग्ध-उत्पादन एक औद्योगिक इकाई की तरह किया जाता है जो सर्वथा अनुचित है. ये आधुनिक डेयरियां पशु कल्याण हेतु स्थापित अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुकूल भी नहीं है. ओर्गैनिक दुग्ध-उत्पादन में पशुओं को चरागाह से घास चरने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है. यह सच है कि ओर्गेनिक दूध देने वाली गायों को एंटीबायोटिक दवाइयाँ नहीं दी जाती, परन्तु इसमें किसी को आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि स्वस्थ चरागाह में रहने वाली गायें अक्सर बीमार नहीं होती तथा न ही इन्हें ऎसी दवाओं की आवश्यकता पड़ती है. यदि फिर भी आवश्यक हो तो इन गायों का उपचार होम्योपैथिक अथवा आयुर्वैदिक दवाओं द्वारा किया जा सकता है ताकि इनके दूध की गुणवत्ता अप्रभावित रहे. ओर्गैनिक डेयरी फार्मिंग में पर्यावरण का समुचित ध्यान रखा जाता है. पशुओं के मल-मूत्र से मिलने वाली खाद को ही हरा चारा उगाने हेतु उपयोग में लाया जाता है ताकि पोषक तत्व पौधों एवं पशुओं के बीच पुनःचक्रित होते रहें.
ओर्गैनिक दूध उत्पादित करना कुछ महँगा अवश्य है क्योंकि प्रत्येक गाय हेतु अधिक चरागाह भूमि की आवश्यकता पड़ती है. गायों को चारे में फलीदार पौधों का चारा अधिक मिलता है जिससे इनमें धनात्मक नाइट्रोजन संतुलन की स्थिती बनी रहती है. गायों से ओर्गेनिक दूध प्राप्त करने हेतु इन्हें साल भर तक रासायनिक खाद एवं कीटनाशक-रहित घास ही खिलाई जाती है तथा इन्हें हार्मोनों एवं अंग्रेजी दवाओं से दूर रखा जाता है.  आधुनिक डेयरी फ़ार्म की तुलना में यहाँ पशुओं की संख्या कम होती है ताकि इन्हें अधिक भीड़ के कारण किसी प्रकार का तनाव न झेलना पड़े. शायद यही कारण है कि इन गायों के लिए अपेक्षाकृत अधिक संसाधन जुटाने पड़ते हैं. इनका सकल प्रबंधन बेहतर होने के कारण दूध में कायिक कोशिकाओं की संख्या भी कम होती है. सामान्य की तुलना में ओर्गैनिक दूध देने वाली गायें ताज़ी घास खा कर दो से तीन गुना अधिक एटीओक्सिडेंट-युक्त दूध देती हैं. इसमें अधिक मात्रा में मिलने वाला युग्मिक लिनोलीक अम्ल हमारे शरीर की चयापचय दर को बढाता है. इससे रोग-प्रतिरोध क्षमता बढ़ती है तथा माँसपेशियाँ विकसित होती हैं. यह कोलेस्टेरोल एवं एलर्जी को भी नियंत्रित करता है. मानव शरीर युग्मिक लिनोलीक अम्ल संश्लेषित करने में सक्षम नहीं है, अतः हमें यह पदार्थ ओर्गेनिक दूध द्वारा आसानी से प्राप्त हो सकता है. जो गाय चरागाहों में चरती हैं, उनके दूध में 500% अधिक युग्मिक लिनोलीक अम्ल मिलता है. युग्मिक लिनोलीक अम्ल कैंसर के उपचार में भी बहुत लाभकारी पाया गया है.
यू.के. में हुए एक अनुसन्धान से ज्ञात हुआ है कि इनके दूध में ओमेगा-3 जैसे लाभदायक वसीय अम्ल अधिक मात्रा में होते हैं. एक अन्य यूरोपीयन अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि जिन माताओं ने ओर्गैनिक दूध का उपभोग किया, उनके दूध में 50% अधिक युग्मिक लिनोलीक एसिड पाया गया. इसी प्रकार अन्य कई अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि सामान्य दूध की अपेक्षा ओर्गैनिक दूध में पोषक तत्वों की मात्रा अधिक होती है, परन्तु इस दिशा में अभी और अधिक अनुसंधान करने की आवश्यकता है. ओर्गैनिक दूध पीने से ह्रदय रोग होने की संभावना कम हो जाती है. अमेरिका में ओर्गैनिक दूध के प्रमाणन हेतु यह आवश्यक है कि गाय चरागाह में ऎसी घास खाए जिसमें ओमेगा-3 जैसे वसीय अम्लों की मात्रा अधिक हो. ज्ञातव्य है कि वहाँ गाय अक्सर मक्का का आहार खाती है जिसमें ओमेगा-6 वसीय अम्ल अधिक होते हैं. हालांकि ओर्गैनिक तथा गैर- ओर्गैनिक दूध में वसा की मात्रा तो लगभग एक जैसी होती है परन्तु ओर्गैनिक दूध में ओमेगा-3 वसीय अम्लों की मात्रा लगभग 60% अधिक तथा ओमेगा-6 वसीय अम्लों की मात्रा 25% कम होती है. ओर्गैनिक दूध में ओमेगा-6: ओमेगा-3 का अनुपात 2.28 पाया गया जो सामान्य दूध के 5.77 से बहुत कम है. अधिकतर विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि ओमेगा-3 वसीय अम्ल स्वास्थ्य हेतु लाभकारी हैं परन्तु वे आहार में ओमेगा-6 वसीय अम्लों की मात्रा कम करने के पक्ष में भी नहीं हैं. कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मत है कि अच्छे स्वास्थ्य हेतु दोनों ही प्रकार के ओमेगा अम्ल लाभदायक हैं. अनुसन्धान से ज्ञात हुआ है कि चरागाह में फलीदार पौधों एवं घास चरने वाली गायों के दूध में वसीय अम्लों का स्तर बेहतर होता है.
डेनमार्क कृषि विज्ञान संस्थान द्वारा किए गए अनुसन्धान से ज्ञात हुआ है कि ओर्गेनिक दूध में विटामिन तथा की मात्रा भी अपेक्षाकृत अधिक होती है. ये गायें चरागाह की ताजी घास पर चरती हैं जिससे इनके दूध में 50% अधिक विटामिन ई तथा 75% अधिक बीटा कैरोटीन मिलती है. बीटा कैरोटीन शरीर में जा कर विटामिन ए के रूप में परिवर्तित हो जाती है. इससे हमारी दृष्टि बढ़ती है तथा यह विटामिन रोग-प्रतिरोध क्षमता भी बढाता है. यह हड्डियों के विकास, जीन प्रकटीकरण तथा जनन-तंत्र हेतु भी लाभदायक है.  विटामिन ई हमारे शरीर को बूढा होने से बचाता है. यह कई दीर्घकालिक रोगों जैसे ह्रदय-रोग, मधु-मेह तथा मोतिया-बिंद आदि के होने की संभावना कम करता है. एक स्वस्थ मनुष्य को प्रतिदिन 15 मिलीग्राम विटामिन की आवश्यकता होती है जिसकी कमी ओर्गेनिक दूध द्वारा आसानी से पूरी की जा सकती है.
प्रमाणीकृत ओर्गेनिक दूध के अनेकों लाभ हैं परन्तु इसका उत्पादन महँगा होने के कारण यह अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया है. भारत के अधिकतर किसान पशुओं के पालन-पोषण पर अधिक धन व्यय नहीं करना चाहते, जो इसके उत्पादन में एक बड़ी बाधा है. किसानों का अनपढ़ होना भी एक समस्या है क्योंकि वे पशुओं से सम्बंधित किसी भी जानकारी का कोई लेखा-जोखा संभाल कर नहीं रखते. अधिकतर किसान दुग्ध-उत्पादन तो बढ़ाना चाहते हैं परन्तु दूध की गुणवत्ता सुधारने में कोई रूचि नहीं लेते. देश में सामान्य दूध की कमी होना भी ओर्गेनिक दुग्ध-उत्पादन हेतु बाधक है. सरकार कृत्रिम गर्भाधान द्वारा संकर नस्लों के उत्पादन पर अधिक जोर दे रही है जो ओर्गेनिक डेयरी फार्मिंग की मुख्य भावना के विपरीत है. कई स्थानों पर अच्छी गुणवत्ता के चारे एवं पेय जल की कमी भी एक बड़ी अड़चन है. हमारे देश में ओर्गेनिक दूध का प्रमाणन महँगा होना भी एक बड़ी समस्या है क्योंकि इसके लिए आवश्यक मापदंडों में एक-रूपता का अभाव है. ध्यातव्य है कि अधिकतर डेयरी किसानों को ओर्गेनिक डेयरी फार्मिंग के बारे में आवश्यक जानकारी भी नहीं है.
जो लोग ओर्गेनिक दूध के उत्पादन में लगे हैं, उन्हें इसके विपणन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. हमारे देश में अधिकतर दूध का उत्पादन छोटी डेयरियों में होने के कारण संसाधनों की कमी रहती है जो ओर्गेनिक दूध उत्पादन बढ़ाने में एक बड़ी बाधा हो सकती है. आजकल ओर्गैनिक दूध का वैश्विक कारोबार अत्यंत तीव्रता से बढ़ रहा है क्योंकि इसे परम्परागत दूध से अधिक स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है. अमेरिका में बिकने वाले दूध का केवल तीन प्रतिशत भाग ही ओर्गैनिक दूध के रूप में होता है जबकि भारत में तो इसका चलन अभी आरंभिक स्थिती में ही है. यदि ओर्गेनिक डेयरी फार्मिंग से होने वाले सभी लाभों की जानकारी डेयरी किसानों तक पहुँचाई जाए तो हमारे देश में भी यह दूध अधिक लोकप्रिय हो सकता है. 

Wednesday, July 16, 2014

क्या बकरी का दूध गाय के दूध से बेहतर है?

आजकल समूचे विश्व में गाय का दूध ही सर्वाधिक उपयोग में लाया जाता है परन्तु अक्सर देखने में आया है कि कुछ लोग इसे आसानी से हजम नहीं कर सकते. कुछ लोगों की मान्यता है कि गायों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए इन्हें हारमोन, आनुवंशिक रूप से परिवर्तित चारे तथा विभिन्न प्रकार के टीके दिए जा रहे हैं. इनके चारे में दुर्घटनावश विषाक्त पदार्थों के प्रवेश होने से भी गाय के दूध की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. ऐसे में बकरियों का दूध एक स्वास्थ्यवर्धक पेय के रूप में लोकप्रिय हो रहा है. अगर देखा जाए तो एक गाय के स्थान पर तीन बकरियों को पालना आसान है जिससे यह पर्यावरण के अधिक अनुकूल है. बकरी का दूध पीने से बहुत लाभ हैं-
·         जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिसिन के अनुसार बकरी का दूध एक सर्वोत्तम आहार है. इस दूध की संरचना माँ के दूध से बहुत मिलती-जुलती है जिसके कारण यह आसानी से हजम हो जाता है. बकरी के दूध में पाए जाने वाले बीटा केसीन की संरचना गाय के दूध में मिलने वाले केसीन से भिन्न होती है.
·         गाय के दूध की तुलना में बकरी का दूध प्राकृतिक दृष्टि से अधिक समय तक समरूप अथवा ‘होमोजनाइज्ड’ रहता है. गाय के दूध में अग्लुटिनीन होने के कारण यह कुछ समय बाद ऊपरी वसायुक्त सतह व निचली वसा-रहित परत में विभक्त हो जाता है. दूध को समरूप बनाने के लिए इसे अत्यंत संकरे छेद में से अधिक दाब द्वारा निकाला जाता है ताकि वसा के बड़े कण टूट कर महीन हो जाएँ. इस क्रिया में दूध तो समरूप हो जाता है परन्तु कुछ अत्यंत क्रियाशील पदार्थ जैसे ‘जेंथीन ऑक्सीडेज़’ भी निकलते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हैं. बकरी के दूध में कोई अग्लुटिनीन नहीं होने से यह समरूप रहता है.
·         कोई एलर्जी न करने तथा गाय के दूध से अधिक पाचनशील होने के कारण भी बकरी के दूध की स्वीकार्यता अधिक पाई गई है. गाय के दूध में एलर्जी करने वाले बहुत से पदार्थ होते हैं जो बकरी के दूध में नहीं मिलते. इसलिए बकरी का दूध बच्चों के लिए सुरक्षित माना गया है.
·         इसमें प्रोटीन व अमीनो-अम्ल तो प्रचुर मात्रा में होते हैं जबकि वसा की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है. अतः इसे मोटापा कम करने के लिए भी उपयुक्त माना गया है. बकरी के ताज़ा दूध में ऐसे एन्जाइम होते हैं जो कैल्शियम के बेहतर अवशोषण में सहायक हैं.
·         गाय के दूध के मुकाबले बकरी के दूध में अनिवार्य वसीय अम्ल जैसे लीनोलिक एवं एराकिडोनिक अम्ल अधिक मात्रा में मिलते हैं.
·         गाय के दूध में वसीय अम्लों की मात्रा लगभग सत्रह प्रतिशत तथा बकरी के दूध में ये पैंतीस प्रतिशत तक हो सकते हैं. इसके अतिरिक्त बकरी के दूध में वसा के कण अपेक्षाकृत बहुत छोटे होते हैं तथा इसमें छोटी एवं मध्यम आकार की श्रृंखला के वसीय अम्ल गाय के दूध की तुलना में कहीं अधिक होते हैं. अतः पाचनशीलता एवं पोषण की दृष्टि से यह अधिक बेहतर होता है.
·         बकरी के दूध में प्री-बायोटिक पदार्थ होते हैं जो आँतों में पाए जाने वाले लाभदायक जीवाणुओं जैसे बाइफिडो-बैक्टिरिया की संख्या में वृद्धि करने में सहायक है. इसमें ए.टी.पी. अथवा ऊर्जायुक्त अणु भी अधिक मात्रा में मिलते हैं जो कोशिकाओं की बहुत-सी चयापचयी क्रियाओं में प्रयुक्त होता है.
·         आँतों के रोग से पीड़ित व्यक्तियों हेतु यह अधिक फायदेमंद है क्योंकि इसके सेवन से आँतों की सूजन व जलन नहीं होती है. यह दूध ताजा ही पीना चाहिए क्योंकि उबालने पर इसके एन्जाइम एवं अन्य पोषक तत्वों पर दुष्प्रभाव पड़ता है तथा इसका वसा दुर्गन्ध-युक्त होने लगता है.
·         बकरी का दूध शरीर में तेज़ाब नहीं बनने देता क्योंकि इसकी एसिड के प्रति प्रतिरोध क्षमता गाय के दूध से बेहतर होती है.
·         जो लोग लैक्टोस के कारण गाय का दूध नहीं पचा सकते, उनके लिए बकरी का दूध एक सर्वोत्तम आहार है क्योंकि इसमें अपेक्षाकृत कम लैक्टोज होता है. यह गाय के दूध की तुलना में अधिक कैल्शियम, फोस्फोरस, ताम्बा, मेंगनीज़, रायबोफ्लेविन, नियासिन, विटामिन ए तथा बी-12 होने के कारण कहीं अधिक स्वास्थ्यवर्धक है.
·         बकरी के दूध में सेलेनियम नामक सूक्ष्म-मात्रिक खनिज पाया जाता है जो ऑक्सीकरण-विरोधी गुणों के कारण रोग-प्रतिरोध क्षमता को बेहतर बनाता है. अनुसंधान द्वारा गत हुआ है कि इसके दूध से लोहे व ताम्बे का चयापचय शीघ्रता से होता है.
आजकल बकरी का दूध सभी स्थानों पर आसानी से उपलब्ध नहीं होता है इसलिए अधिकतर लोग इसके लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं. विदेशों में बकरी के दूध से तैयार बहुत से ऐसे उत्पाद बेचे जाते हैं जिनमें बकरी के दूध के श्रेष्ठ गुणों को समाहित किया गया है. कुछ लोग इसके दूध की व्हे बना कर बेचते हैं जिसमें दुग्ध-प्रोटीन व प्रचुर मात्रा में खनिज मिलते हैं. इसके दूध को शून्य डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर सुखाया जाता है ताकि इसे दीर्घावधि के लिए रखा जा सके. इस प्रक्रिया में इसके संघटकों को कोई क्षति नहीं होती तथा यह ताज़े दूध के सामान ही फायदेमंद होता है. बकरी के दूध में पाए जाने वाले प्रोटीनों को अलग करके भी डिब्बा बंद उत्पाद के रूप में बेचा जाता है. इसके अतिरिक्त इसके दूध से निर्मित प्रोबायोटिक पदार्थ भी मिलते हैं जो न केवल शरीर की पाचन-क्रिया बढाते हैं बल्कि रोग-प्रतिरोध क्षमता को भी बेहतर बनाते हैं. यदि बकरी के दूध से मिलने वाले फायदों पर नज़र डालें तो यह गाय के दूध से कहीं अधिक बेहतर पाया गया है.


आज आवश्यकता इस बात की है कि इसके दूध के विपणन पर और अधिक ध्यान दिया जाए ताकि इसकी स्वीकार्यता बढ़ सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें उपभोक्ताओं को अधिक शिक्षित व जागरूक बनाने की आवश्यकता है, जो परम्परागत दृष्टि से केवल गाय या भैंस के दूध का ही सेवन करते आ रहे हैं. विश्व के अनेक देशों में बकरी के दूध को गाय के दूध से बेहतर माना जाता है. गाँवों में छोटे व मझोले किसान अपने जीवनयापन हेतु बकरियों को पालना पसंद करते हैं क्योंकि इस पर कहीं कम मात्रा में खर्च आता है. बकरी पालन हेतु न तो बहुत अधिक स्थान की आवश्यकता होती है और न ही इनके रख-रखाव पर अधिक खर्च करने की आवश्यकता पड़ती है.

Thursday, July 3, 2014

रेशा-युक्त आहार से दुग्ध-उत्पादन बढ़ाएं!


रेशे पौधों की कोशिका भित्ति से प्राप्त होते हैं जिनमें कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट एक मुख्य घटक होता है. ये रेशे सेल्लुलोज़, हेमी-सेल्लुलोज़ तथा लिग्निन से निर्मित होते हैं. सेल्लुलोज़ में ग्लूकोज के अणु बीटा 1-4 बंध द्वारा जुड़े होते हैं जबकि हेमी-सेल्लुलोज़ में ‘जाइलोज’ शक्कर के अणु बीटा 1-4 बंध द्वारा जुड़े होते हैं.  हेमी-सेल्लुलोज़ का सम्बन्ध लिग्निन से होता है जो रेशों को आसानी से पचने नहीं देती.  पौधों का आकार बढ़ने से इनकी कोशिका भित्ति में लिग्निन की मात्रा भी अधिक होने लगती है जिससे आहार की पचनीयता में कमी आती है. अपरिपक्व अथवा कच्ची चारा-फसलों में पकी हुई फसलों की तुलना में पाचक रेशे अधिक होते हैं. हमें चारा फसलों को फूल लगने के आरम्भ में ही काट लेना चाहिए ताकि इनमें लिग्निन कम तथा आसानी से पचने योग्य रेशे अधिक हों. ध्यातव्य है कि अगर चारा फसलों को इससे पहले काट दिया जाए तो आहार की पचनीयता अवश्य ही बढ़ सकती है परन्तु इसमें शुष्क पदार्थ की मात्रा बहुत कम होती है.  अतः चारा फसलों को काटते समय इनके उत्पादन तथा पाचकता में संतुलन बनाने की आवश्यकता होती है.  चारा फसलों में रेशों की मात्रा इनकी भौगोलिक स्थिति पर भी निर्भर करती है. जो चारा फसलें गर्म व शुष्क स्थानों पर उगाई जाती हैं, उनमें लिग्निन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है.
रोमंथी पशुओं में रेशायुक्त आहार का पाचन छोटी आंत में पहुँचने से पहले ही किण्वन द्वारा हो जाता है. पशुओं को रेशों के पाचन के बाद सूक्ष्मजीवी प्रोटीन भी उपलब्ध होता है जो अमीनो-अम्लों के रूप में अवशोषित कर लिया जाता है. रुमेन में कई प्रकार के सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया तथा प्रोटोजोआ होते हैं.  एमाइलो-लाइटिक’ बैक्टीरिया स्टार्च का किण्वन करने में सहायक होते हैं जबकि ‘फाइब्रो-लाइटिक’ बैक्टीरिया रेशों का किण्वन आसानी से कर सकते हैं.  विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया की संख्या आहार की प्रकृति पर निर्भर करती है. रेशों के किण्वन से एसिटिक एसिड बनता है जिससे गाय को ऊर्जा के साथ-साथ दूध में वसा की मात्रा बढ़ाने वाला प्रारंभिक उत्पाद प्राप्त होता है. शक्कर एवं स्टार्च के किण्वन से प्रोपियोनिक एसिड का निर्माण होता है.  इसे लीवर द्वारा ग्लूकोज संश्लेषण हेतु उपयोग में लाया जाता है जिससे गाय को ऊर्जा मिलती है. पशु आहार में रेशीय अथवा गैर-रेशीय दोनों ही प्रकार का कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट हो सकता है.
रेशे पशुओं के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं क्योंकि इनके कारण रुमेन एवं अन्य शारीरिक क्रियाएँ सामान्य बनी रहती हैं. सामान्यतः पशुओं को चारे में रेशा-युक्त आहार खिलाया जाता है ताकि इनमें जुगाली की प्रक्रिया अधिक प्रभावी हो सके. जुगाली करने से आहार में अधिक लार मिलती है, इससे रुमेन की पी.एच व एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ बेहतर होता है जो दूध में वसा की मात्रा बढ़ाने में सहायक है. जो गाय अधिक मात्रा में प्रभावी रेशों वाला आहार खाती हैं, वह हर रोज छः घंटे जुगाली करके लगभग 50 गैलन तक लार स्त्रावित कर सकती हैं. अधिक लार बनने से रुमेन की पी.एच. अथवा अम्लता नियंत्रित रहती है. जुगाली के बाद आहार धीरे-धीरे ही रुमेन से बाहर निकलना चाहिए अन्यथा किण्वन अधूरा रहने से इसका पाचन अच्छी तरह नहीं हो पाएगा.
यदि रेशे अधिक मोटे व लंबे होंगे तो जुगाली करने पर तरल रुमेन द्रव्य पर तैरने लगते हैं जबकि इसके बारीक कण नीचे बैठ जाते हैं. रुमेन के इस द्वि-स्तरीय आतंरिक पर्यावरण से ही पशु की सभी चयापचय क्रियाएँ निर्धारित होती हैं जो दूध की गुणवत्ता को भी प्रभावित करती है. इस प्रकार रोमंथी पशुओं के पोषण में रेशों का बहुत अधिक महत्व होता है. घुलनशील रेशों के अधिकतर घटक जैसे पेक्टिन, फ्रक्टन तथा बीटा-ग्लुकन रुमेन में आसानी से किण्वित हो जाते हैं परन्तु कुछ रेशे अपेक्षाकृत अघुलनशील होने के कारण पाचन-नली में अधिक स्थान घेरते हैं तथा इनकी पाचकता बेहतर किण्वन पर निर्भर होती है. आहारीय रेशे अम्ल-उदासीन अथवा अम्लीय प्रकृति जैसे सेल्लुलोज़ व लिग्निन के हो सकते हैं.  न्यूट्रल या उदासीन डिटर्जेंट रेशे आहार के सेल्लुलोज़, हेमी-सेल्लुलोज़ तथा लिग्निन घटकों के अनुरूप होते हैं. अतः न्यूट्रल डिटर्जेंट फाइबर (एन.डी.एफ.) एसिड डिटर्जेंट फाइबर (ए.डी.एफ.) की तुलना में आहार के अधिक फैलाव एवं बेहतर जुगाली प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है.
ज्ञातव्य है कि प्रभावी एन.डी.एफ. तथा भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. में अंतर होता है.  भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. रेशों के भौतिकीय गुणों जैसे आकार आदि पर निर्भर करता है जबकि  प्रभावी एन.डी.एफ. आहार द्वारा चारे का प्रतिस्थापन करने की क्षमता पर निर्भर करता है. भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ., एन.डी.एफ. से सदा कम होता है जबकि प्रभावी एन.डी.एफ. आहार के एन.डी.एफ. से कम अथवा अधिक भी हो सकता है. प्रभावी एन.डी.एफ. डेयरी गायों में जुगाली प्रक्रिया को बढ़ाता है तथा रुमेन वातावरण को सामान्य रखने के साथ-साथ दूध में वसा को कम नहीं होने देता. आहार में रेशे अधिक होने पर पशु अधिक जुगाली करते हैं. कम रेशे खिलाने से पशु सीमित मात्रा में जुगाली करता है तथा बहुत कम लार स्त्रावित होती है जिससे रुमेन की पी.एच. कम अथवा अम्लीय हो जाती है. अम्लता किण्वन को भी प्रभावित करती है जिससे एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ में गिरावट आती है तथा दूध में वसा की मात्रा कम होने लगती है.
लार की मात्रा एवं इसके स्त्रावित होने की दर जुगाली द्वारा ही निर्धारित हो सकती है. जुगाली प्रक्रिया चारे में रेशे की मात्रा, चारा ग्राह्यता तथा चारे व दाने के अनुपात पर निर्भर होती है. सामान्यतः आहारीय रेशे लगभग एक से.मी. से अधिक लंबे होते हैं जो जुगाली एवं लार स्त्रावण को बढ़ावा देते हैं. अधिक लार के कारण रुमेन किण्वन द्वारा उत्पन्न अम्ल उदासीन होने लगते हैं. जो रेशे जुगाली प्रक्रिया बढ़ाने में सहायक हों उन्हें भौतिक दृष्टि से अधिक ‘प्रभावी’ माना जा सकता है. आहार कणों का आकार पशुओं की ऐच्छिक ग्राह्यता, आहार नली में इसकी गति तथा किण्वन को प्रभावित करता है. आहार कणों का आकार छोटा होने पर जुगाली प्रक्रिया में कमी आती है. जब जुगाली करने से आहार कणों का आकार एक से.मी. से कम होता है तो ये रुमेन से बाहर निकलने लगते हैं. यदि चारे के कणों का आकार बड़ा हो तो ये रुमेन को खाली नहीं कर पाते, जिससे पशु की भूख भी कम हो जाती है. अतः पशुओं द्वारा जुगाली करना एक स्वस्थ रुमेन का द्योतक है. बड़े आकार के आहार कण होने से भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. की ग्राह्यता तो बढ़ जाती है परन्तु शुष्क पदार्थ व एन.डी.एफ. ग्राह्यता अप्रभावित रहती है.
रुमेन पी.एच. सूक्ष्म-जीवों की संख्या तथा वाष्पीय वसा-अम्लों के उत्पादन को प्रभावित कर सकती है. रेशों को पचाने वाले बैक्टीरिया 6.2-6.8 की पी.एच. पर सक्रिय होते हैं जबकि सेल्लुलोज़ पचाने वाले एवं मीथेन उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया 6.0 की पी.एच. पर कम होने लगते हैं. स्टार्च पचाने वाले बैक्टीरिया 5.2-6.0 के बीच की पी.एच. पसंद करते हैं. कुछ प्रोटोजोआ 5.5 की पी.एच. से नीचे जीवित नहीं रह सकते. पशुओं को यथासम्भव ऐसा आहार दिया जाना चाहिए जिससे रुमेन-द्रव्य की पी.एच. 5.8-6.4 के बीच में ही बनी रहे. अतः पी.एच. को बेहतर रुमेन स्वास्थ्य का परिचायक भी माना जा सकता है. आहार में गैर-रेशीय कार्बोज खिलाने से कार्बनिक अम्लों का उत्पादन बढ़ता है जबकि भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. रेशे खिलाने से लार का प्रवाह बढ़ता है जो रुमेन के अम्लों को उदासीन कर देता है. अतः पशुओं को चारा व दाना अलग-अलग खिलाने की बजाय मिला कर सम्पूर्ण मिश्रित आहार के रूप में ही देना चाहिए. अधिक मात्रा में दाना तथा कम मात्रा में भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. रेशे से युक्त चारा खिलाने पर रुमेन में वाष्पीकृत वसीय अम्ल अधिक हो जाते हैं जिससे पी.एच का स्तर गिर जाता है. यदि रुमेन की पी.एच अधिक लंबे समय तक अम्लीय बनी रहे तो यह पशु के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है. आहारीय रेशों के किण्वन से लघु श्रंखला वाले वसीय अम्ल जैसे एसीटेट, प्रोपियोनेट, ब्यूटाइरेट, लैक्टेट व सक्सीनेट उत्पन्न होते हैं. इसके अतिरिक्त जल, कार्बनडाईऑक्साइड, मीथेन व हाइड्रोजन गैस का उत्पादन भी होता है. रेशों के किण्वन से एसीटेट तथा गैर-रेशीय कार्बोज के किण्वन से अधिक मात्रा में प्रोपियोनेट उत्पन्न होता है. यदि एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ 2.0 से कम हो जाए तो गाय के दूध में वसा कम होने लगता है. एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ अधिक होने से दूध में वसा की मात्रा बढ़ने लगती है क्योंकि एसीटेट से ही दुग्ध वसा का संश्लेषण होता है. अतः रुमेन में सामान्य किण्वन सुनिश्चित करने हेतु आहार के भौतिक गुणों का बहुत अधिक महत्व है. चारे में रेशों की लम्बाई व दाने के कणों का आकार बड़ा होना चाहिए ताकि दूध में वसा की मात्रा अप्रभावित रहे. जब पशुओं को अधिक ऊर्जायुक्त आहार की आवश्यकता होती है तो रेशों के भौतिक गुण शुष्क पदार्थ ग्राह्यता को भी प्रभावित कर सकते हैं. अधिक दूध देने वाली गायों के पोषण में उच्च-ऊर्जा घनत्व के कारण रेशों की मात्रा कम होने लगती है. रेशों की कमी से ‘रुमेन एसिडोसिस’ अथवा अम्लता हो सकती है. ऎसी परिस्थितियों में गाय जुगाली कम करने के साथ-साथ लंगड़ा कर चलती है. इसका गोबर पतला हो जाता है तथा इसके दूध में वसा की मात्रा भी कम हो जाती है. यदि आवश्यक हो तो सोडियम बाइ-कार्बोनेट द्वारा भी रुमेन की अम्लता को नियंत्रित किया जा सकता है. अगर इन गायों को पूर्ण मिश्रित आहार दिया जाए तो रुमेन की पी.एच. 6.0 से अधिक हो जाती है तथा दूध में वसा की मात्रा सामान्य होने लगती है.
बढ़ती हुई बछड़ियों को आवश्यकतानुसार रेशा-युक्त आहार खिलाना चाहिए क्योंकि यह सस्ता होने के साथ-साथ स्वास्थ्यवर्धक भी है. दुधारू गायों के लिए तो रेशे वाली खुराक अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इनकी प्रतिदिन शुष्क पदार्थ ग्राह्यता 25 किलोग्राम या इससे अधिक हो सकती है. राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद् के अनुसार दुधारू पशुओं के आहार के शुष्क पदार्थ का 25 % एन.डी.एफ. होना चाहिए. परन्तु इस सिफारिश के अंतर्गत रेशों के आकार या प्रकार का कोई ब्यौरा नहीं दिया गया है. ज्ञातव्य है कि कुछ ऐसे आहारीय रेशे भी हैं जिनका आकार बहुत छोटा है तथा इन्हें चबाने की आवश्यकता नहीं पड़ती जिससे लार का स्त्रावण कम होता है. अतः यह आवश्यक है कि पशु को इस एन.डी.एफ. का लगभग 75% भाग परम्परागत चारे से प्राप्त होना चाहिए. चारे से प्राप्त होने वाला एन.डी.एफ. पशु के शारीरिक भार का लगभग 1.2 % होता है.  इसका अर्थ यह भी नहीं है कि केवल बड़े आकार के रेशे ही पशु की आवश्यकता-पूर्ति करने में सक्षम हैं.
प्रभावी रेशे वे होते हैं जो पशु को अधिक चबाने, जुगाली करने और लार स्त्रावित करने के लिए प्रेरित करते हैं. ज्यों-ज्यों गाय का उत्पादन बढ़ता है त्यों-त्यों इसे चारे की तुलना में अधिक दाने की आवश्यकता पड़ती है. यदि आहार में प्रभावी रेशे की मात्रा कम हो तो आप संपूरक द्वारा इसकी पूर्ति भी कर सकते हैं. सर्वप्रथम आहार में ए.डी.एफ. तथा एन.डी.एफ. का मूल्यांकन करें. अब आहार में चारे के अतिरिक्त रेशों का मूल्यांकन करके यह देखें कि यह कुल एन.डी.एफ का कितने प्रतिशत है? यदि यह संतुलित नहीं है तो चारा:दाना ‘अनुपात’ में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है. उदाहरण के लिए सोयाबीन के छिलके में रेशे की मात्रा तो अधिक है परन्तु इसमें प्रभावी रेशे इतने कम हैं कि इसे चारे के स्थान पर प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता. बिनौलों में प्रभावी रेशों की मात्रा बहुत अच्छी है जो कुल एन.डी.एफ. का 85 % तक है, अतः इसे चारे के प्रतिस्थापन हेतु उपयोग किया जा सकता है. चारे एवं दाने में उपयुक्त मात्रा में रेशे होने से न केवल गाय का रुमेन स्वस्थ रहता है अपितु इससे डेयरी किसानों को बेहतर दुग्ध-उत्पादन भी प्राप्त होता है.  

Wednesday, May 28, 2014

तनाव-मुक्त गाय से अधिक दूध पाएं!


डेयरी गायों में दीर्घकालिक तनाव इनके स्वास्थ्य, उत्पादन एवं कल्याण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है. अतः इन्हें तनाव से बचाने के लिए इनकी समुचित देख-रेख व दूषित पर्यावरण के कारण पड़ने वाले दुष्प्रभावों को न्यूनतम स्तर पर रखना होगा. ऐसा करने के लिए हमें एक गाय की दैनिन्दन जीवन-चर्या पर विशेष ध्यान देना होगा.  यह अवश्य ही विचारणीय है कि डेयरी गायों को पशु-प्रबंधन से जुड़ी विभिन्न गतिविधियां किस प्रकार प्रभावित कर सकती हैं.  गायों की उत्पादन क्षमता को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक है कि हम इनके जीवन से तनाव-संबंधी कारकों को यथा-संभव दूर कर सकें.  ऎसी सभी गति-विधियां जो गायों को बदलाव के लिए मजबूर करें तथा इन्हें अनुकूलन की ओर प्रेरित करें,  तनाव के अंतर्गत ही आती हैं.  तनाव मानव एवं गायों दोनों के ही सन्दर्भ में सार्थक प्रतीत होता है. यह भी सत्य है कि यह कई चयापचयी क्रियाओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है.
अगर देखा जाए तो तनाव का सम्बन्ध हमारी उन कार्य-प्रणालियों से है जिनकी सहायता से हम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए स्वयं को बदलने में सक्षम होते हैं.  ये शारीरिक परिवर्तन आतंरिक एवं बाहरी दोनों ही तरह से हो सकते हैं. गाय-प्रबंधन के अंतर्गत अक्सर बाहरी वातावरणीय परिस्थितियों जैसे मौसम परिवर्तनों, टीकाकरण अथवा सींग हटाने के कारण होने वाले तनावों पर तो विचार किया जाता है परन्तु भोजन, पानी, हवा, आवास एवं पशुओं के आराम आदि पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता, जबकि बेहतर डेयरी प्रबंधन हेतु यह सब सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है.

 1. चारा-चरने का समय 
            पशु दिन-भर में 4-6 घंटे तक तरह-तरह का चारा चरने में व्यतीत करते हैं. गायों को चरने के लिए सारा दिन संतुलित आहार उपलब्ध होना चाहिए.  इन्हें इनकी इच्छानुसार विभिन्न प्रकार के चारे मिश्रण के रूप में भी दिए जा सकते हैं.  गायों को अपनी पसंद के अनुसार चारा हर समय मिलता रहना चाहिए ताकि इनके स्वास्थ्य एवं उत्पादन पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े. चारे की पेटिका साफ़-सुथरी होनी चाहिए तथा गायों को चारा चरते समय कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए.  अगर चारा-पेटिका सुलभ एवं आराम-देह होगी तो यह इन्हें अधिक चारा चरने हेतु प्रेरित करेगी.  गायों को चारा परोसने के लिए की गई सम्पूर्ण व्यवस्था इनके आराम को ध्यान में रख कर की जानी चाहिए ताकि इन्हें चरते समय कोई जोखिम या चोट लगने की संभावना न रहे.  गायों को परोसा गया चारा ताज़ा होना चाहिए.  खराब चारा खिलाने से गाय अस्वस्थ एवं तनाव-ग्रस्त हो सकती है. यदि गायों को अपेक्षाकृत कम चारा चरने के लिए लंबी दूरी तक जाना पड़े तो उन्हें पर्याप्त मात्रा में संपूरक आहार भी दिया जा सकता है.
2. स्वच्छ पेय जल उपलब्धता
            दुधारू गायों को पीने के लिए पर्याप्त स्वच्छ जल की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए. सामान्यतः पशु दिन-भर में लगभग आधा घंटा पानी पीने पर खर्च करते हैं.  पीने का साफ़ पानी जीवन का आधार है.  यदि गायों को पर्याप्त पेय-जल आपूर्ति हो तो ये न केवल स्वस्थ रहती हैं अपितु इनकी उत्पादन क्षमता में भी सुधार होता है. पानी का स्त्रोत गायों के यथा-सम्भव निकट ही होना चाहिए ताकि ये जब चाहें,  जितना चाहें, उतना जल अपनी इच्छानुसार ग्रहण कर सकें. पीने का पानी स्वादिष्ट होना चाहिए तथा इसमें किसी प्रकार का खारापन नहीं होना चाहिए.  गाय आमतौर पर अपने शारीरिक तापमान से ठंडा जल ही पीना पसंद करती हैं.  अतः इनका पेय जल आवश्यकता से अधिक ठंडा या गर्म नहीं होना चाहिए. पानी की टंकी की सफाई नियमित रूप से की जानी चाहिए ताकि इसमें किसी प्रकार की ‘काई’ अथवा फफूंद न उग सके.
3. आराम का समय 
            डेयरी गायों से सम्पूर्ण उत्पादक क्षमता प्राप्त करने हेतु यह आवश्यक है कि ये स्वस्थ एवं आराम-दायक परिस्थितियों में निवास करें. इसके लिए हमें दिन-भर गायों के साथ रहने की आवश्यकता पड़ेगी! ऐसा करने से ही इनकी मूलभूत आवश्यकताओं को आसानी से समझा जा सकता है. गायों का सर्वाधिक समय जो 13-14 घंटे तक हो सकता है, वह बैठने या लेटने में ही व्यतीत होता है. शायद यही कारण है कि इनके बैठने के लिए फर्श पर बालू रेत या पुआल का उपयोग किया जाता है ताकि गायों को आराम-देह जगह उपलब्ध हो सके.  गायों को व इनके आवास को साफ़-सुथरा रखने की भी अत्यंत आवश्यकता है अन्यथा गाय रोगी हो सकती हैं.  रोगी गायों से प्राप्त होने वाले दूध की गुणवत्ता एवं मात्रा दोनों ही प्रभावित हो सकती हैं.  गायों के आवास में कीटनाशकों का पर्याप्त छिडकाव करना चाहिए ताकि ये आराम करते समय मक्खियों एवं मच्छरों के कारण परेशान न हों.  इनका स्थान हवादार होना चाहिए.  गायों के आवास में न तो अधिक गरमी हो और न ही सर्दी.  असहनीय ताप व अधिक नमी न केवल इनकी अस्वस्थता का कारण बनती है अपितु इससे उत्पादकता भी कम हो जाती है.
4. दूध निकालते समय
            अधिकतर गायों को दिन में दो बार जबकि कुछ को तीन बार दुहा जा सकता है जो इनकी दुग्ध-उत्पादन क्षमता पर निर्भर करता है.  एक गाय दिन-भर दूध निकलवाते समय लगभग आधा घंटा व्यतीत करती है.  यह प्रक्रिया जितनी महत्वपूर्ण गाय के लिए है उतनी ही आवश्यक डेयरी किसान के लिए भी है. अतः उत्पादन क्षमता बनाए रखने हेतु यह आवश्यक है कि गाय का दूध हर-रोज नियत समय पर ही निकाला जाए ताकि इन्हें इसके कारण कोई तनाव न होने पाए.  ज्ञातव्य है कि स्वस्थ गाय सदा बेहतर गुणवत्ता का ही दूध देती है.  गायों के अयन को दुहने से पूर्व एवं बाद में कीटाणु-नाशक घोल से साफ़ करना चाहिए ताकि इन्हें थनों के माध्यम से कोई संक्रमण न होने पाए.  अयन की अच्छी देख-भाल करने से यह स्वस्थ रहता है तथा थनैला जैसे गंभीर रोगों से बचाव भी संभव हो सकता है.  संक्रमण-रहित दूध में ‘सोमैटिक’ अथवा कायिक-कोशिकाओं का स्तर न्यूनतम रहता है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम होता है.  अतः स्वच्छ दुग्ध-उत्पादन हेतु सभी नियमों का पालन करना आवश्यक है ताकि अधिक दुग्ध-उत्पादन करने वाली गायों को संभावित शारीरिक तनाव से दूर रखा जा सके.
5. खुले स्थान पर घुमाना-फिराना
            गायों को हर रोज दो घंटे के लिए खुले में घुमाना-फिराना आवश्यक है. ऐसा करने से इन्हें न केवल पर्याप्त व्यायाम मिलता है, अपितु सामाजिक रूप से ये एक दूसरे के निकट आ सकती हैं.  सब गायों में परस्पर सामाजिक सम्बन्ध स्थापित होता है जो इनके सर्वांगीण विकास हेतु अति-आवश्यक है. ऐसा करने से इन्हें शारीरिक व्यायाम मिलता है तथा खुली हवा में घुमाने से कोई तनाव भी नहीं होता.  बाहर घूमने के दौरान इनके आवास को कीटाणु-नाशकों के उपयोग द्वारा स्वच्छ रखा जा सकता है.  खुले वातावरण में रहने से गायों को बोरियत नहीं होती तथा इनका व्यवहार सामान्य बना रहता है.  ये अनावश्यक रूप से उत्तेजित नहीं होती तथा स्वयं को तनाव-मुक्त भी अनुभव करती हैं. शायद इसीलिए गाँवों में प्रति-दिन गायों को इकट्ठा करके अक्सर बाहर खुली जगह पर भेजा जाता है.
6. पर्यावरणीय परिस्थितियाँ
            गायों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने में जितना महत्व केवल तापमान व नमी का है शायद चारा, पानी, आवास एवं जलवायु का मिला-जुला प्रभाव उससे भी अधिक होता है.  इन्हें  ‘थर्मो-न्यूट्रल’ अथवा ताप-उदासीन परिस्थितियों में अधिक आराम अनुभव होता है.  कम उम्र वाली गायों की तुलना में अधिक उम्र की गाय शीघ्रता से नए वातावरण के प्रति अनुकूलित हो जाती हैं.  अधिक गर्मी से बचाव के लिए गायों को पंखें या कूलर उपलब्ध करवाए जा सकते हैं ताकि गर्मी के कारण इन्हें कोई तनाव न हो सके. संकर गऊएँ गर्मी की अपेक्षा सर्दी को आसानी से झेल सकती हैं.  गाय जुगाली करते समय भी काफी मात्रा में उष्मा उत्पन्न करती हैं जो सर्दियों में लाभकारी है परन्तु अधिक गर्मी में यह तनाव का कारण बन सकती है.  आरामदायक वातावरण में रहने वाली गायों की उत्पादकता हमेशा अधिक होती है.
7. न्य तनाव-कारक गतिविधियाँ
            डेयरी फ़ार्म में होने वाले सामान्य क्रिया-कलाप जैसे टीकाकरण, सींग हटाना एवं खुर काटने से भी गायों को तनाव हो सकता है हालाँकि ये सब कार्य उन्नत डेयरी प्रबंधन हेतु अत्यंत आवश्यक होते हैं.  ये सभी क्रियाएँ हर रोज नहीं होती परन्तु दीर्घावधि में गाय न केवल रोग-मुक्त रहती हैं अपितु शारीरिक व मानसिक तनाव से भी बच सकती हैं.  सींग-रहित गाय किसी से लड़ाई नहीं कर सकती जिससे इन्हें चोट लगने की संभावना नहीं रहती. ऐसी गाय डेयरी किसानों के लिए भी वरदान है क्योंकि इसका रख-रखाव सुरक्षित एवं आसान होता है.  गायों के खुर काटने या घिसने से ये आराम से चल-फिर सकती हैं.  इस प्रकार के सभी कार्य प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा ही किए जाने चाहिएं.  गायों को टीकाकरण, सींग-रहित करते हुए व खुर काटते समय कोई पीड़ा नहीं होनी चाहिए.  इन परिस्थितियों में यथासंभव एंटी-बायोटिक व दर्द-निवारक औषधियों का उपयोग करना चाहिए ताकि इन्हें तनाव से मुक्ति मिल सके.  अगर देखा जाए तो इन सब कारकों से परेशानियों की तुलना में होने वाले लाभ कहीं अधिक हैं.

गायों की बेहतर देखभाल से ही इनके लिए तनाव-मुक्त जीवन सुनिश्चित किया जा सकता है ताकि यह मानवता की सेवा अधिक बेहतर ढंग से करने में सक्षम हो सके.  तो आइए, आज ही से हम अपने गायों को तनाव-मुक्त बनाएं और अधिक उत्पादन पाएं!