Friday, July 22, 2016

यूरिया उपचार विधि से भूसे की गुणवत्ता बढ़ाएँ!


पशुओं को खिलाए जाने वाले चारे में भूसे का अहम योगदान होता है परन्तु इसमें इनके रख-रखाव हेतु पर्याप्त पोषक तत्त्व नहीं मिलते. यूरिया से उपचारित करने पर भूसे में रुक्ष प्रोटीन एवं ऊर्जा की मात्रा अधिक हो जाती है जिसे पशुओं को खिलाने पर दैहिक वृद्धि एवं दुग्ध-उत्पादन बढ़ जाता है.
यूरिया उपचार विधि क्या है?
विभिन्न अनुसंधान परीक्षणों के परिणाम के अनुसार 4% यूरिया का छिडकाव करके भूसे में लगभग 40% आर्द्रता के स्तर को उपयुक्त पाया गया है. यूरिया में मिलाने के लिए शुद्ध जल की आपूर्ति भी आवश्यक है. लगभग 25 क्विंटल भूसे में एक क्विंटल यूरिया और 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. यूरिया को सोखने के लिए सामान्यतः दो से तीन सप्ताह की अवधि पर्याप्त होती है परन्तु ठन्डे स्थानों पर अपेक्षाकृत अधिक समय देना पड़ सकता है. उपचारित भूसे को एक खड्डे में दबाया जाता है जिसका आकार लगभग दो मीटर लम्बा हो सकता है तथा इसकी चौड़ाई व गहराई एक मीटर रखी जा सकती है. इसे ऊपर से पोलिथीन ‘शीट’ द्वारा ढक दिया जाता है ताकि बाहरी नमी इसमें प्रवेश न कर सके. अधिक नमी में फफूंद उग जाती है तथा भूसा खराब होने का भय रहता है. इस तरह के खड्डे धूप से दूर होने चाहिएं. सूखे एवं अकालग्रस्त स्थानों पर यूरिया उपचार हेतु स्वच्छ जल की आपूर्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. इसके लिए तालाबों का गन्दा जल उपयोग में नहीं लाना चाहिए क्योंकि इसमें फफूंद उगने का खतरा बढ़ जाता है.
यह तकनीकी कैसे काम करती है?
सूक्ष्मजीवियों द्वारा यूरिया के अपघटन से अमोनिया उत्पन्न होती है. ये सूक्ष्मजीवी सामान्यतः नमी-युक्त भूसे में पाए जाते हैं जो बाद में यूरिएज़ एंजाइम उत्पन्न करते हैं. अमोनिया भूसे में अवशोषित हो जाती है जिससे इसमें नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है. इस उपचार विधि से भूसे में रेशों की पाचकता भी अधिक हो जाती है.
आरम्भ में इसे पशु कम खाते हैं परन्तु बाद में आदत होने पर ये चाव से खाने लगते हैं. इसे पहली बार खिलाते समय पशुओं के सामान्य चारे में मिला कर देना चाहिए. बाद में धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ा देनी चाहिए ताकि पशु इसे खाने में कोई अरुचि न दिखाएं. अमोनिया की तीव्र गंध से मुक्ति पाने के लिए उपचारित भूसे को कुछ समय खुली हवा में फैला देना चाहिए ताकि पशु इसे खाने में आना-कानी न करें.
इस तकनीकी का महत्त्व क्या है?
अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि यूरिया उपचारित भूसा खिलाने से बछड़ों की आहार ग्राह्यता 10 से 15% बढ़ जाती है तथा इनमें 100 से 150 ग्राम प्रतिदिन की  वृद्धि दर मिलती है. उपचारित भूसे के कारण पशुओं का दुग्ध-उत्पादन भी एक से डेढ़ लीटर प्रतिदिन तक बढ़ जाता है. यूरिया से उपचारित करने पर भूसे की पाचनशीलता बढ़ जाती है तथा इसे पशु बड़े चाव से खाते हैं. शुष्क-पदार्थ पाचनशीलता एवं सकल पचनीय पोषक तत्त्व 10 % तक बढ़ जाते हैं जबकि रुक्ष प्रोटीन की मात्रा बढ़ कर लगभग तीन गुणा हो जाती है.
यह तकनीकी तभी सफल हो सकती है जब इसे किसी पशु-पोषण विशेषज्ञ की देख-रेख में अपनाया जाए. पोषक भूसे हेतु यूरिया उपचार विधि में ज़रा-सी गलती भी पशुओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है. यूरिया को शुद्ध जल में घोलना और भूसे पर एक जैसा छिडकाव करना एक जटिल प्रक्रिया है परन्तु इसे मशीनों द्वारा अवश्य ही आसानी से किया जा सकता है. डेयरी किसानों के अनुसार यह अत्यधिक मेहनत वाला काम है जबकि इससे मिलने वाला लाभ बहुत सीमित है. यदि छिडकाव के बाद इस भूसे को ढक कर न रखा जाए तो यह खराब भी हो सकता है.
उपचारित भूसे की उपयोगिता
जिन स्थानों पर हरा चारा पर्याप्त मात्रा में मिलता है, वहां के किसान इस तकनीकी में विशेष रूचि नहीं दिखाते परन्तु सूखे और अकालग्रस्त स्थानों पर यह तकनीकी बहुपयोगी सिद्ध हो सकती है. हालांकि आमतौर पर हरे चारे के साथ भूसा मिला कर ही पशुओं को खिलाया जाता है परन्तु उपचारित भूसे को बिना मिलावट के ही खिलाया जा सकता हैं. उत्तर भारत में अधिकतर गेंहूं एवं धान की खेती की जाती है. धान की कटाई के बाद गेहूं के लिए खेत तैयार करना होता है, ऐसे में भूसे को फैलाने के लिए पर्याप्त खाली जगह उपलब्ध नहीं होती है. धन की पुआल के उपलब्ध होने के समय बरसीम भी आसानी  से मिल जाता है जिसे साधारण भूसे के साथ मिला कर भी दिया जा सकता है. किसानों द्वारा हर साल गेहूं एवं धान की फसलों  के बचे हुए अवशेषों को जलाने से न केवल प्रदूषण फैलता है बल्कि मिटटी में पाए जाने वाले लाखों लाभदायक कीट भी जल कर नष्ट हो जाते हैं. यदि फसलों के इन सूखे अवशेषों को यूरिया से उपचारित करके पशुओं को खिलाया जाए तो चारे की कमी से जूझ रहे पशुओं को एक बड़ी राहत मिल सकती है. उपचारित भूसा पर्याप्त पोषक तत्त्वों से भरपूर है तथा यह अकालग्रस्त स्थानों के पशुओं को आवश्यक पोषण आसानी से उपलब्ध करवा जा सकता है.
तकनीकी को अपनाने में बाधाएं
सीमान्त एवं भूमिहीन किसान इस तकनीकी को अपनाने में कोई रूचि नहीं लेते क्योंकि वे अपने पशुओं को बाहरी स्थानों पर घास चराने के लिए ले जाते हैं. ऐसे में उपचारित भूसे को तैयार करने हेतु वे कोई अतिरिक्त धन खर्च नहीं करना चाहते. डेयरी किसान अपने पशुओं से प्राप्त अधिकतर दूध को घर में ही उपयोग कर लेते हैं तथा ये लोग इसे बेचने में कम ही रूचि लेते हैं.  ऐसे किसानों को अपने पशुओं से अधिक दूध प्राप्त करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती. गाँवों के किसान यूरिया को विभिन्न फसलों हेतु खाद के रूप में प्रयोग करते हैं अतः उन्हें यूरिया को इस तरह काम में लेना स्वीकार्य नहीं है. अगर देखा जाए तो यह तकनीकी केवल उन स्थानों पर अपनाई जा सकती है जहां हरे चारे की कमी है तथा भूसा आसानी से उपलब्ध है. अगर पानी और सस्ते मजदूरों की उपलब्धता आसानी से हो तो किसान इस तकनीकी को आसानी से अपना सकते हैं. भूसे को अच्छी तरह मिलाने के लिए मजदूरों की आवश्यकता होती है जो कुछ महंगा लग सकता है. इस तकनीकी के अधिक लोकप्रिय न होने के लिए शायद यह भी एक कारण है.

यदि इस तकनीकी को सामूहिक रूप से अपनाया जाए तो उपचारित भूसा तैयार करने हेतु इस विधि पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है. गर्मियों में गेहूं का भूसा बहुतायत में उपलब्ध होता है जबकि इसकी मांग काफी कम होती है. इस भूसे को यूरिया द्वारा आसानी से उपचारित करके अधिक पोषक बनाया जा सकता है. उपचारित भूसे को खनिज मिश्रण के साथ खिलाने पर पशुओं की रख-रखाव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है. यदि सूखे की मार झेल रहे किसानों को इस कार्य हेतु अच्छी तरह शिक्षित एवं प्रशिक्षित किया जाए तो यह साधारण भूसे की पोषण क्षमता बढाने वाली एक सस्ती और बेहतर तकनीकी सिद्ध हो सकती है.