Monday, August 24, 2015

साइलेज – पशुओं के लिए एक पौष्टिक आहार

अधिकतर डेयरी किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए खेतों में चारा फसलें उगाते हैं परन्तु मौसमी परिवर्तनों के कारण सारा साल हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाती. ऐसे में किसान अपने पशुओं को गेहूं का भूसा एवं विभिन्न फसलों के सूखे अवशेष खिला कर ही काम चलाते हैं. इस प्रकार पशुओं को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति नहीं हो पाती तथा इनकी उत्पादकता कम होने लगती है. सम्पूर्ण वर्ष पौष्टिक चारे की उपलब्धता बनाए रखने हेतु या तो चारे को सुखा कर ‘हे’ बनाई जा सकती है अथवा गीली अवस्था में ही ‘साइलेज’ के रूप में भंडारित कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि ‘भूसा’ पकी हुई फसल के अवशेष से प्राप्त होता है जबकि ‘हे’ में चारे को दीर्घावधि संग्रहण हेतु सुखाया जाता है जिसमें पोषक तत्त्वों के नष्ट होने की संभावना अधिक होती है. परन्तु ‘साइलेज’ तैयार करने से चारे के सभी पोषक तत्त्व नष्ट नहीं होते. ‘हे’ बनाने के लिए विशेष प्रकार की मशीनरी की आवश्यकता पड़ती है जबकि ‘साइलेज’ तैयार करना कहीं आसान व सस्ता विकल्प है. ‘हे’ बनाने के लिए मोटे तने वाली फसलें जैसे मक्का आदि को पूर्ण रूप से सुखाने में काफी समय भी लगता है. ऐसे में ‘साइलेज’ द्वारा चारे के पोषक तत्त्वों को लंबे समय तक संग्रहीत करना कहीं अधिक सरल है. साइलेज बनाने की विधि छोटे एवं मझोले किसान आसानी से ‘अपना’ सकते हैं तथा हरे चारे की उपलब्धता न होने पर भी सारा साल अपने पशुओं को चारा आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं.
साइलेज क्या है?
‘साइलेज’ अचार की तरह एक ऐसा उत्पाद है जिसमें हरे चारे को दीर्घावधि तक संभाल कर रख सकते हैं. डेयरी किसानों के लिए साइलेज बनाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इससे शुष्क मौसम के दौरान भी चारे की उपलब्धता बनी रहती है. चारे की फसल को काटने का समय बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि पौधे के अधिक परिपक्व होने पर इसके पोषक तत्त्व कम होने लगते हैं. चारे को काट कर ऑक्सीजन रहित वातावरण में किण्वन हेतु भंडारित किया जाता है ताकि इसमें मौजूद सूक्ष्म जीवाणु लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करके पोषक तत्त्वों को दीर्घावधि तक संरक्षित कर सकें. चारे का परिरक्षण अम्लीय वातावरण में होना चाहिए. क्षारीय वातावरण में तैयार की गई साइलेज का स्वाद अच्छा नहीं होता तथा इसमें शर्करा एवं प्रोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है.
साइलेज कैसे बनती है?
खेत से चारा काटने के बाद भी इसके पत्तों में श्वास क्रिया चलती रहती है. पौधों की कोशिकाएं वायुमंडल से ऑक्सीजन गैस लेकर शर्करा को कार्बनडाईऑक्साइड, उष्मा एवं जल में अपघटित कर देती हैं. परन्तु जब ये पौधे ‘साइलो-पिट्स’ या गड्ढों में दबे होते हैं तो इन्हें ऑक्सीजन नहीं मिलती तथा ये वायु की अनुपस्थिति में ही किण्वन करने लगते हैं जिससे लैक्टिक अम्ल बनता है जो ‘साइलो-पिट’ में अम्लीय वातावरण उत्पन्न करके चारे को लंबे समय तक संरक्षित करने में सहायक होता है.
किण्वन कैसे होता है?
‘साइलेज’ तैयार करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सूक्ष्म जीवाणुओं की ही है. ये जीवाणु केवल ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ही पनप सकते हैं. यदि चारे में ऑक्सीजन रह गई तो कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु भी पनपने लगते हैं जो इसे नष्ट कर सकते हैं. ऑक्सीजन की उपस्थिति में पादप एन्जाइम एवं अन्य जीवाणु चारे के पोषक तत्त्वों को नष्ट कर देते हैं. जैसे ही साइलेज के गड्ढे में ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है वैसे ही लैक्टिक एसिड पैदा करने वाले जीवाणुओं की संख्या भी बढ़ने लगती है. अम्लता बढ़ने से शर्करा का अपघटन थम जाता है तथा घास दीर्घावधि तक भंडारण हेतु सुरक्षित हो जाती है.
इस प्रकार तैयार ‘साइलेज’ लगभग 5 वर्ष तक खराब नहीं होती तथा इससे पशुओं को बहुत लाभ हैं. पर्याप्त जानकारी के अभाव एवं अशिक्षा के कारण हमारे किसानों द्वारा इसका उपयोग अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया है. हालांकि ‘हे’ बनाने पर सकल शुष्क पदार्थ के लगभग 30% पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं जबकि ‘साइलेज’ बनाने में केवल 10% पोषक तत्त्व ही व्यर्थ होते हैं. ‘साइलेज’ बनाने से खेत में सालाना 2-3 फसलें उगाना भी सम्भव है. साइलेज बनाते समय किण्वन के कारण पौधों द्वारा मिट्टी व खाद से अवशोषित ‘नाइट्रेट’ के स्तर भी कम हो जाते हैं. इसके भंडारण हेतु बहुत कम स्थान की आवश्यकता पड़ती है. मक्की के बीजों एवं भूसे की तुलना में इसके चारे से ‘साइलेज’ बनाने पर 30-50% तक अधिक पोषण प्राप्त होता है. अधिक नमी के कारण दो किलोग्राम ‘साइलेज’ की पोषण क्षमता लगभग एक किलोग्राम ‘हे’ के बराबर आंकी गई है. जिस स्थान पर ‘साइलेज’ तैयार होती है, उसके आस-पास ही इसे उपयोग में लाना लाभकारी होता है. इसे लम्बी दूरी तक ढोना सम्भव नहीं है क्योंकि लैक्टिक अम्ल के साथ बहुत से पोषक तत्त्व बाहर आ कर व्यर्थ हो सकते हैं. यह चारे की तुलना में भारी होती है, अतः पशुओं को परोसने में कुछ अधिक मेहनत करनी पड़ती है.
साइलेज हेतु साइलो-पिट्स कहाँ बनाएँ?
साइलेज हेतु पिट्स बनाने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करना आवश्यक है. इसके लिए ऎसे स्थान का चयन करना चाहिए जो पशुओं के आवास के निकट हो ताकि ‘साइलेज’ परोसने हेतु अधिक दूरी न तय करनी पड़े. ‘साइलो-पिट्स’ के स्थान पर जल-भराव की स्थिति नहीं होनी चाहिए. वर्षा के मौसम में पानी का बहाव इससे यथासम्भव दूरी पर होना चाहिए. ‘साइलो-पिट्स’ पर सूरज की किरणें सीधे नहीं पड़नी चाहिएं क्योंकि तापमान अधिक होने पर भी साइलेज खराब हो सकती है.
साइलेज हेतु चारा फसलें
किसी भी फसल को काटने का उपयुक्त समय इसके पकने से कुछ दिन पूर्व का होता है क्योंकि इस स्थिति में पोषक तत्त्वों की मात्रा अधिकतम स्तर पर होती है. परिरक्षण के दौरान कुछ पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, इसलिए साइलेज हेतु प्रयुक्त चारे में पोषक तत्त्वों की मात्रा अधिकतम होनी चाहिए. चारे को कुछ समय के लिए खुली हवा में फैलाया जाता है ताकि इसमें नमी की मात्रा 60-75% के बीच सीमित हो जाए. इतनी नमी पर उपयुक्त किण्वन सुनिश्चित होता है. यदि नमी की मात्रा इससे अधिक अथवा कम हो तो किण्वन पर दुष्प्रभाव पड़ता है. सर्वप्रथम चारे को बारीक टुकड़ों में काट लिया जाता है. खेत में से फसल काटने के बाद भी पौधों की पत्तियों में श्वसन क्रिया चलती रहती है जिससे इनके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं. अतः चारे को कटाई के तुरंत बाद ही ‘साइलो’ पिट्स में स्थानातरित कर देना चाहिए. यदि बारिश के कारण फसल गीली हो गई हो तो इसकी कटाई एक या दो दिन बाद ही करनी चाहिए.
चारे की कटी हुई फसल को इकठ्ठा करके दबाया जाता है ताकि इसके बीच की सारी हवा को बाहर निकाला जा सके. ध्यान रहे कि ‘लैक्टिक’ अम्ल उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ही किण्वन द्वारा लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं. यदि साइलेज किसी बड़े गड्ढे में बनाई जानी है तो उसमें चारा भर के ट्रेक्टर चला देना चाहिए ताकि अधिकतम दाब द्वारा इसकी सारी हवा बाहर आ जाए. अब इस चारे  को पोलीथीन अथवा प्लास्टिक शीट से ढक कर कुछ वजन जैसे टायर आदि रख दिए जाते हैं ताकि घास दबी रहे. साइलेज निर्माण हेतु विभिन्न प्रकार के ‘साइलो पिट्स’ का उपयोग किया जा सकता है जैसे सुरंगनुमा, ट्रेंच, ‘कोरिडोर’ तथा ‘टावर-साइलो’ आदि. ये सभी ‘साइलो’ वायुरोधी होने चाहिएं ताकि इनमें किण्वन द्वारा उपयुक्त गुणवत्ता की साइलेज प्राप्त की जा सके. साइलो-पिट्स में दबाई जाने वाले चारा-फसल साफ़ सुथरी एवं मिट्टी रहित होनी चाहिए. मिटटी से बचाव हेतु गड्ढे के तल पर एक ‘पोलीथीन शीट’ बिछानी चाहिए. इसके कारण साइलो-पिट में उत्पन्न होने वाला लैक्टिक अम्ल मिट्टी में अवशोषित नहीं होता तथा इस प्रकार बेहतर गुणवत्ता की ‘साइलेज’ बनाई जा सकती है. 
मक्का के चारे से साइलेज बनाएँ
आजकल डेयरी किसान पशुओं को मक्का चारे के रूप में खिला रहे हैं क्योंकि इसकी पैदावार काफी अच्छी है. इसकी पाचन क्षमता बेहतर है तथा यह पशुओं को स्वादिष्ट भी लगता है. मक्का की साइलेज से अन्य फसलों की अपेक्षा प्रति एकड़ अधिक मात्रा में खाद्य ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है जो आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक है. मक्का साइलेज द्वारा इसके पोषक तत्त्वों जैसे नाइट्रोजन एवं फोस्फोरस का पुनःचक्रण सुगमता से हो जाता है. जब मक्की के पौधे में शुष्क पदार्थों की मात्रा लगभग 30-35% हो जाए तो इसे साइलेज हेतु उपयोग में लाया जा सकता है. मक्के के पौधे को धरती से लगभग 10-12 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर काटना चाहिए.
यदि एक से अधिक चारे की फसलें उपलब्ध हों तो इन सबको मिला कर भी साइलेज बनाई जा सकती है. ऐसा करने से अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता वाले चारे को भी उपयोग में लाया जा सकता है. यदि मक्का बोने के बाद सिंचाई हेतु पर्याप्त जल न मिले तो मक्के के छोटे पौधों को भी साइलेज बनाने हेतु उपयोग में लाया जा सकता है, हालांकि इन परिस्थितियों में इसकी पोषण क्षमता सामान्य से 10 या 15% तक कम हो सकती है. रेशों की पाचकता अधिक होने के कारण इसे दाने के साथ दुधारू पशुओं को खिलाया जा सकता है. उच्च तापमान एवं अकाल की स्थिति के कारण पौधों में नाइट्रेट का स्तर बढ़ जाता है किन्तु साइलेज बनाने से इसकी मात्रा को 50% तक कम किया जा सकता है. जो मक्के की फसल पाले से खराब हो रही हो, उसे भी साइलेज बनाने में प्रयुक्त किया जा सकता है.
थैलों में साइलेज बनाएँ
खेतों में बड़े साइलो पिट्स बनाने की तुलना में प्लास्टिक के बड़े-बड़े थैले कहीं सस्ते पड़ते हैं. इन थैलों में आवश्यकतानुसार वांछित मात्रा में साइलेज बनाई जा सकती है. इन थैलों में अन्य जीवाणुओं अथवा कवक का प्रवेश न होने से प्रोटीन एवं अन्य पोषक तत्त्व व्यर्थ नहीं हो सकते. डेयरी किसान अपनी आवश्यकतानुसार इन थैलों को कहीं भी ले जा कर उपयोग कर सकता है. थैले पूर्णतः बंद होने के कारण लैक्टिक अम्ल बाहर नहीं निकलता तथा इसकी गुणवत्ता अच्छी रहती है. गड्ढों में से साइलेज निकालने हेतु अतिरिक्त मजदूरी खर्च होती है जबकि थैलों से साइलेज निकालना एक दम आसान है. जितनी साइलेज की आवश्यकता हो उतने ही थैले खोलने पड़ते हैं जबकि अन्य बंद किए गए थैलों की साइलेज सुरक्षित रहती है. चारे को थैलों में भरने से पहले लगभग 3 सेंटीमीटर के छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है ताकि हरी पत्तियों से अधिकतम शर्करा बाहर आ कर किण्वन में सहायक हो सके. चारे की पट्टियों आदि पर कोई मिट्टी नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे थैलों को बंद करने से पूर्व दबाया जाता है ताकि अंदर की सारी वायु बाहर निकल जाए. इस प्रकार हवा निकाल कर थैलों को ‘सील’ करके रख दिया जाता है ताकि इसमें लैक्टिक अम्ल पैदा होने से किण्वन क्रिया निरंतर चलती रहे. चारे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने के लिए अधिक समय तक प्रतीक्षा करना उचित नहीं है क्योंकि जीवाणु अथवा कवक नमी को आवश्यकता से अधिक घटाने हेतु सक्रिय हो सकते हैं. अतः घास काट कर यथाशीघ्र ‘साइलो-पिट्स’ या ‘प्लास्टिक’ थैलों में स्थानांतरित कर देनी चाहिए.
‘साइलेज’ के थैलों को चूहों आदि से बचा कर रखना चाहिए ताकि इनमें लैक्टिक अम्ल की मात्रा वांछित स्तर पर बनी रहे. प्लास्टिक थैलों की गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए ताकि इनमें कोई सुराख या ‘लीकेज’ न हो सके. आमतौर पर साइलेज हेतु खाद के पुराने प्लास्टिक थैले उपयोग में लाए जाते हैं जिन्हें दो या तीन बार इस उद्देश्य हेतु उपयोग में ला सकते हैं. चारा फसल काटने के 24 घंटों के भीतर ही साइलेज प्रक्रिया संपन्न हो जानी चाहिए अन्यथा चारे की पोषण क्षमता में कमी आने लगती है. जिस चारे में शर्करा की मात्रा अधिक होती है वह बेहतर साइलेज बनाने में समर्थ होता है. शर्करा की मात्रा कम होने से चारा सड़ने लगता है तथा साइलेज बनाना असंभव हो जाता है. साइलेज बनने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगता है.
‘साइलेज’ कैसी हो?
‘साइलेज’ का रंग आमतौर पर पीला होता है परन्तु चारे के सड़ने से इसका रंग भूरा भी हो सकता है जो ठीक नहीं है. इसमें लैक्टिक अम्ल की मात्रा 4-6% तक हो सकती है तथा पी.एच. 4 के आस-पास होती है जिसकी जांच पी.एच. पेपर की सहायता से की जा सकती है. साइलेज में फफूंद का होना अधिक शुष्क पदार्थों का परिचायक है जिससे इसकी गुणवत्ता प्रभावित होती है. यह फफूंद रुमेन में जा कर विषाक्त पदार्थों को जन्म देते हैं जिससे किण्वन एवं सामान्य पाचन क्रिया प्रभावित होती है. ‘साइलेज’ को फफूंद से यथासम्भव बचाना चाहिए तथा फफूंदयुक्त साइलेज पशुओं को नहीं खिलानी चाहिए क्योंकि यह स्वास्थ्य एवं उत्पादन की दृष्टि से हानिकारक होती है. यदि साइलेज का तापमान अधिक हो तो यह ऑक्सीजन की उपस्थिति दर्शाता है. यदि इसमें से ‘सिरके’ जैसी महक आए तो यह उच्च एसिटिक अम्ल की मात्रा इंगित करता है. इसका स्वाद सामान्यतः खट्टा होता है, कड़वी साइलेज’ पशुओं को खिलने के लिए उपयुक्त नहीं है. आजकल 10 मेगा-जूल प्रतिकिलोग्राम शुष्क पदार्थ अथवा इससे अधिक ऊर्जा से भरपूर साइलेज बनाना सम्भव है, क्योंकि साइलेज में संपूरक मिलाने से इसकी गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है. अच्छी साइलेज की गुणवत्ता इसकी उपचय ऊर्जा अर्थात पाचकता पर निर्भर करती है. यदि साइलेज की पाचकता अधिक हो तो पशुओं के दुग्ध-उत्पादन में भी वृद्धि होती है.
साइलेज कैसे खिलाएं?

पशुओं को ताज़ी ‘साइलेज’ ही खाने हेतु देनी चाहिए. बची-खुची साइलेज को ‘फीडर’ से हटा कर साफ़ कर देना चाहिए. इसकी खाद्य मात्रा पशुओं की शारीरिक आवश्यकता एवं उत्पादन क्षमता पर निर्भर करती है. ‘साइलेज’ में सकल पचनीय पोषक तत्त्वों की मात्रा बहुत अधिक होती है तथा इसे ‘हे’ या भूसे के साथ खिलाया जा सकता है. एक औसत पशु जिसका भार लगभग 550 किलोग्राम हो, वह प्रतिदिन 25 किलोग्राम तक साइलेज खा सकता है जबकि एक भेड़ या बकरी लगभग 5 किलोग्राम साइलेज आसानी से खा सकती है. पशुओं को इसके स्वाद की आदत लगने में कुछ समय लग सकता है. कुछ पशु आरम्भ में कम साइलेज खाते हैं तथा बाद में इसे सामान्य मात्रा में ग्रहण करने लगते हैं. यदि एक किलोग्राम में शुष्क पदार्थ के आधार पर 200 ग्राम स्टार्च हो तो वह अच्छी गुणवत्ता की ‘साइलेज’ मानी जाती है. अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि मक्के एवं घास से तैयार साइलेज को बराबर मात्रा में मिला कर गायों को खिलाने से अधिक दुग्ध-उत्पादन प्राप्त होता है. घास से तैयार साइलेज की तुलना में फलीदार पौधों की साइलेज खिलाने पर आहार ग्राह्यता एवं दुग्ध-उत्पादन बढ़ जाता है. इस प्रकार उत्पादित दूध में पोली-अनसेचुरेटिड अथवा असंतृप्त वसीय अम्लों की मात्रा भी अधिक होती है जो मानव स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं.

Wednesday, July 22, 2015

शुष्क गायों को क्या खिलाएं?


शुष्क गायों से अभिप्रायः उन गायों से है जो अभी दूध नहीं दे रही हैं तथा अगले बयांत की प्रतीक्षा में हैं. यदि गायों को शुष्क-काल के आरम्भ में रेशेदार एवं कम ऊर्जा-युक्त आहार दें तो प्रसवोपरांत इनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इनके पूर्णतया मिश्रित आहार में गेहूं का भूसा मिलाया जा सकता है ताकि पोषण में ऊर्जा का घनत्व कम किया जा सके. गायों में प्रसव से लगभग तीन सप्ताह पूर्व एवं तीन सप्ताह बाद का समय अत्यंत चुनौती-पूर्ण होता है. पर्याप्त आहार न मिलने से इन्हें प्रसवोपरांत दुग्ध-ज्वर, जेर न गिरना, गर्भाश्य की सूजन, जिगर संबंधी विकार एवं लंगड़ेपन जैसी अनेक व्याधियों से जूझना पड़ सकता है. चर्बी-युक्त जिगर एवं कीटोसिस के कारण स्वास्थ्य को और भी अधिक गंभीर ख़तरा हो सकता है. डेयरी फ़ार्म के लगभग आधे पशु अक्सर इस प्रकार के उपचय संबंधी विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं.  जैसे ही प्रसव का समय समीप आता है, रक्त में प्रोजेस्टीरोन की मात्रा कम होने लगती है जबकि इस्ट्रोजन हारमोन की मात्रा बढ़ जाती है जिससे प्रसवकाल के आस-पास पशुओं की शुष्क पदार्थ ग्राह्यता कम हो जाती है जबकि इस समय गर्भाश्य में बढते हुए बच्चे को पोषण की सर्वाधिक आवश्यकता होती है.
प्रसवोपरांत दुग्ध-संश्लेषण एवं इसके उत्पादन को बढ़ाने हेतु लैक्टोज की आवश्यकता होती है जो ग्लूकोज से ही निर्मित होता है. आहार का अधिकतम कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट तो रुमेन में ही किण्वित हो जाता है, अतः अतिरिक्त ग्लूकोज-माँग की आपूर्ति जिगर द्वारा प्रोपियोनेट से संश्लेषित ग्लूकोज ही कर सकता है. यदि पशु को प्रसवोपरांत आहार कम मिले तो रुमेन में प्रोपियोनेट का उत्पादन कम होने लगता है. ग्लूकोज की कुछ आपूर्ति आहार से प्राप्त अमीनो-अम्लों द्वारा भी की जाती है. इसके अतिरिक्त शरीर की जमा चर्बी का क्षरण भी ग्लूकोज संश्लेषण हेतु किया जाता है. गत एक दशक से पशु-पोषण पर होने वाले अनुसंधान में गायों की उत्पादकता बढ़ाने एवं इन्हें स्वस्थ रखने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है. गायों की प्रसव-पूर्व शुष्क पदार्थ ग्राह्यता एवं अधिक दाना खिला कर आहार का ऊर्जा घनत्व बढ़ाया जा रहा है. इसके लिए पूर्णतया मिश्रित आहार को उपयोग में लाया जा रहा है ताकि प्रसवोपरांत गऊएँ शीघ्रातिशीघ्र अपनी खुराक बढ़ा सकें ताकि प्रसवोपरांत होने वाली स्वास्थ्य संबंधी विकारों से बचा जा सके.
शुष्क गायों की तुलना में नई बयाने वाली गायों को अधिक पोषण घनत्व वाला आहार दिया जाता है. प्रसव से एक या दो सप्ताह पहले गाय की खुराक 10-30% तक कम हो सकती है, अतः पोषण घनत्व बढ़ाने से शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कमी के बा-वजूद पशु को आवश्यक पोषक तत्व मिलते रहते हैं. उल्लेखनीय है कि प्रसव-पूर्व शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कमी के कारण पशु को लगभग 2% अतिरिक्त रुक्ष प्रोटीन की आवश्यकता होती है. गायों को शुष्क-काल के आरम्भ में दीर्घावधि तक आवश्यकता से अधिक ऊर्जा-युक्त आहार देने से संक्रमणकालीन कठिनाइयों में कोई कमी नहीं होती. यदि शुष्क-काल के अंतिम दौर में गायों को अधिक ऊर्जा वाला पूर्णतया मिश्रित आहार खिलाया जाए तो वे प्रसवोपरांत शुष्क पदार्थ ग्राह्यता कम होने से ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति में पहुँच जाती हैं तथा इनके रक्त में गैर-एस्टरीकृत वसीय अम्लों तथा बीटा हाइड्रोक्सीबुटाइरिक अम्लों की मात्रा बढ़ जाती है. परन्तु जिन गायों को शुष्क-काल में गेहूं का भूसा मिला कर कम ऊर्जा-युक्त आहार खिलाया गया, उनकी स्थिति कहीं बेहतर पाई गई.
स्पष्टतः जो गाय शुष्क-काल में अत्याधिक ऊर्जा प्राप्त करती हैं उन्हें कीटोसिस, वसा-युक्त जिगर एवं अन्य स्वास्थ्य संबंधी विकारों का अधिक सामना करना पड़ता है. अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि शुष्क-काल के आरम्भ में अपेक्षाकृत कम ऊर्जा-युक्त या भूसा मिला हुआ आहार खिलाना तथा प्रसव के निकट अधिक ऊर्जा-युक्त आहार खिलाना अधिक लाभदायक हो सकता है. प्रसवोपरांत शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कमी तथा अन्य उपचय सम्बन्धी असंतुलन मुख्यतः गाय के मोटापे से नहीं बल्कि लंबे समय तक अधिक ऊर्जा-युक्त आहार खिलाने से होते हैं. जैसे-जैसे दुग्ध्काल आगे बढ़ता है वैसे-वैसे शुष्क-काल के आरम्भ में कम ऊर्जा-युक्त आहार के कारण मिले लाभ भी कम होने लगते हैं हालांकि इसका सर्वाधिक लाभ तो दुग्ध-काल की अच्छी शुरुआत ही है.
चारे में भूसा मिलाने से इसकी मात्रा बढ़ जाती है तथा धीमी गति से पचने वाले रेशे के कारण रुमेन का स्वास्थ्य बेहतर होता है जिससे यह सामान्य ढंग से कार्य करता है तथा भरा हुआ होने के कारण ब्यांत के समय उदार की स्थिति भी प्रभावित नहीं होती. कम ऊर्जा वाले अन्य आहार जैसे ‘जों’ में इस तरह के गुण नहीं मिलते. दीर्घावधि तक आवश्यकता से अधिक ऊर्जा मिलने से इंसुलिन का प्रभाव भी कम होने लगता है. शुष्क-काल के दौरान आहार में अधिक ऊर्जा देने से प्रसव-पूर्व एक सप्ताह में शुष्क-पदार्थ ग्राह्यता कम हो जाती है. अतः शुष्क-काल में गायों की ऊर्जा ग्राह्यता कम करके इनकी प्रसवोपरांत भूख में सुधार लाया जा सकता है. ऐसा करने से शरीर के रिजर्व वसा में कोई कमी नहीं होती तथा जिगर में वसा की जमावट भी नहीं होती.  इसलिए आहार का ऊर्जा घनत्व 1.25-1.35 मेगा कैलोरी प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ उपयुक्त रहता है.

उपर्युक्त तथ्यों का कदाचित यह अर्थ नहीं हो सकता कि गायों को आहार में ऊर्जा देनी ही नहीं चाहिए बल्कि इन्हें ऐसा पूर्णतया मिश्रित आहार खिलाएं जिसमें पर्याप्त पाचन योग्य प्रोटीन, विटामिन एवं खनिज-लवणों की मात्रा हो. भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार खिलाने से ऊर्जा की मात्रा पर नियंत्रण करने में कठिनाई होती है, अतः पूर्णतया मिश्रित आहार में भूसा मिलाने से ऊर्जा घनत्व को कम करना ही लाभदायक रहता है. शुष्क-काल के आरम्भ में ‘साइलेज’ के साथ शुष्क पदार्थ के आधार पर 20-30% कटा हुआ भूसा देने से ऊर्जा घनत्व 1.3 मेगा कैलोरी प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ तक लाया जा सकता है. भूसे को 5 सेंटीमीटर से बारीक काटना चाहिए ताकि गाय इन्हें छोड़ कर अन्य आहार कणों को न खा जाए. सामान्यतः गायों को इस तरह के आहार खाने की आदत बनाने में एक सप्ताह तक का समय लग सकता है. सम्भव है इस दौरान इन पशुओं की दैनिक शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कुछ कमी आ जाए परन्तु बाद में यह सामान्य स्तर पर पहुँच जाती है. आहार में उपयोग किए गए भूसे की गुणवत्ता बेहतर होनी चाहिए. भूसा साफ़-सुथरा, सूखा एवं फफूंद से मुक्त होना चाहिए. आमतौर पर गेहूं का भूसा सर्वोत्तम रहता है क्योंकि यह रुमेन में अधिक देर तक रुक सकता है जिससे न केवल पाचन दक्षता में सुधार होता है बल्कि प्रसवोपरांत गाय के उदर की स्थिति भी सामान्य बनी रहती है. यदि पोषण के नज़रिए से देखा जाए तो भूसा महँगा लगता है परन्तु रेशों के बेहतर स्रोत एवं पाचक गुणों के कारण कोई अन्य चारा इसका स्थान नहीं ले सकता.

Tuesday, May 19, 2015

बढ़ती हुई बछड़ियों को क्या खिलाएं?

स्वस्थ बछड़ियों से सर्वोत्तम गाय तैयार करना किसी भी डेयरी फार्म का मुख्य उद्देश्य हो सकता है. बछड़ियों का आहार प्रबंधन बहुत कठिन कार्य है तथा इसके लिए सकल डेयरी बज़ट का लगभग 20% भाग खर्च हो जाता है. बछड़ियों के शीघ्र यौवनावस्था में आने से इन्हें कृत्रिम गर्भाधान द्वारा प्रजनित करवाया जा सकता है ताकि प्रथम ब्यांत पर इनकी आयु अधिक न होने पाए.  सम्पूर्ण शारीरिक विकास एवं भार वृद्धि हेतु बछड़ियों को अधिक ऊर्जा एवं प्रोटीन-युक्त आहार खिलाने की आवश्यकता होती है. यौवनावस्था से पहले दैहिक भार में औसत वृद्धि अधिक होने के कारण दुग्ध-ग्रंथियों का विकास धीमी गति से होने लगता है जो भविष्य में प्रथम दुग्ध-काल की उत्पादन क्षमता को कम कर देता है. यदि प्रथम ब्यांत पर पशु की आयु दो वर्ष से अधिक न हो तो दुग्ध-काल पर इस हानि का प्रभाव कम हो सकता है. अगर बछड़ियों में जन्म से लेकर प्रथम ब्यांत की आयु तक उपयुक्त अनुमान व मूल्यांकन द्वारा आहार प्रबंधन किया जाए तो हमें आदर्श डेयरी हेतु एक बेहतर गाय प्राप्त हो सकती हैं.
दुग्ध-उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए प्रथम ब्यांत पर होल्सटीन गाय की औसत आयु दो वर्ष या इससे कम तथा दैहिक भार 350-500 किलोग्राम तक हो सकता है बशर्ते इन्हें अधिक दाना या सान्द्र के साथ पौष्टिक चारा खिलाया जाए. संकर गायों में प्रथम ब्यांत पर दैहिक भार 300 किलोग्राम के लगभग हो सकता है. यौवनावस्था के बाद अधिक ऊर्जायुक्त आहार खिलाने से दुग्ध-ग्रंथियों के विकास में तेज़ी आती है तथा प्रथम ब्यांत के बाद मिलने वाले दूध की मात्रा भी बढ़ जाती है. अतः जन्म से यौवनावस्था तक होने वाले दैहिक एवं दुग्ध-ग्रंथियों के विकास एवं दुग्ध-उत्पादन क्षमता पर पोषण का प्रभाव सर्वाधिक होता है. दुग्ध-ग्रंथियों के विकास से ही दुग्ध-काल की सीमा तथा दुग्ध-उत्पादन क्षमता निर्धारित होती है. पशुओं में दुग्ध-ग्रंथियां भ्रूणावस्था से ही विकसित होने लगती हैं तथा जन्म के समय ही इनका बाह्य-विकास हो जाता है. इस अवस्था में दुग्ध-नलिकाएं एवं चर्बी तीव्रता से बढ़ती हैं जबकि कृपिकाओं का निर्माण नहीं होता. जन्म से तीन माह तक तथा एक वर्ष से गर्भावस्था के तीन माह तक दूध-ग्रंथियों का विकास दैहिक विकास दर के समान होता है परन्तु इसके बाद दुग्ध-ग्रंथियों का विकास तीव्र हो जाता है. होल्सटीन बछड़ियों में सबसे तेज़ दुग्ध-ग्रंथियों का विकास 3-9 महीने की आयु में होता है जबकि इनका दैहिक भार 100-200 किलोग्राम के बीच होता है. यदि इस समय इन्हें पर्याप्त पोषण न मिले तो इनकी दुग्ध-ग्रंथियां अर्धविकसित रह सकती हैं क्योंकि ग्रहण की गई ऊर्जा का अधिकतम भाग दैहिक विकास हेतु ही उपयोग हो जाता है.
गायों का दुग्ध-उत्पादन दुग्ध-कोशिकाओं की संख्या एवं इनकी स्रवण क्षमता पर निर्भर करता है. द्वितीय दुग्धकाल की तुलना में प्रथम दुग्धकाल के अंतर्गत दुग्ध-ग्रंथियों की उपचय स्थिति भिन्न होती है क्योंकि पशुओं द्वारा आहार के पोषक तत्त्व दुग्धावस्था एवं निरंतर दैहिक विकास हेतु उपयोग में लाए जाते हैं. बछड़ियों को उनकी इच्छानुसार जन्म से 50 दिन तक गाय का दूध पिलाने से दैहिक विकास तीव्रता से होता है तथा वे शीघ्रता से न केवल यौवनावस्था प्राप्त करती हैं बल्कि प्रथम दुग्धकाल में दूध भी अधिक देती हैं. बछड़ियों को दूध की बजाय 35o सेंटीग्रेड तापमान का कृत्रिम दुग्ध-संपूरक देने से भी दैहिक विकास तेज़ी से होता है तथा वे जल्दी यौवनावस्था में आ जाती हैं. बछड़ियों को बाल्टी से सीधे दूध पिलाने की बजाय कृत्रिम निप्पल द्वारा दूध पिलाना अधिक लाभदायक होता है. गाय का स्तन-पान करने वाली बछड़ियों में जन्म के बाद दैहिक भार में अधिक वृद्धि देखी गई है. दुग्ध-संपूरक में ऊर्जा एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने से बछड़ियों की दैहिक विकास दर में वृद्धि लाई जा सकती है. बछड़ियों के जन्म के 2-8 सप्ताह के बीच होने वाले तीव्र दैहिक विकास का दुग्ध-ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव देखा गया है. इस समय आहार में ऊर्जा एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने से दुग्ध-कोशिकाओं का विकास दोगुनी गति से होता है.
पशुओं में यौवनावस्था का आगमन आयु की अपेक्षा इनके शारीरिक भार पर अधिक निर्भर करता है. होल्सटीन जैसी बड़ी नस्ल की बछड़ियाँ अक्सर 9-11 माह की आयु में यौवनावस्था प्राप्त करती हैं जब इनका भार 250-280 किलोग्राम के लगभग होता है. गायों की दुग्ध-उत्पादन क्षमता इनके जन्म एवं यौवनावस्था के बीच मिलने वाले पोषण पर निर्भर करती है, परन्तु यौवनावस्था से पूर्व अत्याधिक पोषण के कारण शरीर में चर्बी का जमाव बढ़ने से दुग्ध-कोशिकाओं का विकास धीमा हो सकता है. अतः बछड़ियों के शारीरिक भार में वृद्धि 800 ग्राम प्रतिदिन से अधिक नहीं होनी चाहिए. ऐसा लगता है कि बछड़ियों को अधिक ऊर्जा-युक्त आहार देने से यौवनावस्था तो शीघ्र आ जाती है परन्तु दुग्ध-ग्रंथियों का विकास दैहिक विकास की तुलना में कम होता है. यह स्थिति दुग्ध-कोशिकाओं की संख्या एवं डी.एन.ए. की मात्रा में कमी के कारण उत्पन्न होती है.  अतः इन परिस्थितियों में बछड़ियों को संतुलित आहार दिए जाने की अधिक आवश्यकता है ताकि प्रसवोपरांत इनकी दुग्ध-उत्पादन क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. बछड़ियों में अधिक प्रोटीन-युक्त आहार देने से शारीरिक विकास तीव्रता से होता है तथा मोटापे की समस्या भी नहीं होती. इस प्रकार पशुओं के आगामी दुग्ध-काल एवं दुग्ध-उत्पादन पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को रोका जा सकता है.
बछड़ियाँ आगामी दुग्ध-काल कों प्रभावित किए बिना 800 ग्राम प्रतिदिन की दर से 100-300 किलोग्राम तक शारीरिक भार प्राप्त कर सकती हैं. इसके लिए इन्हें 90-110 % तक सकल पाचक तत्वों एवं रुक्ष प्रोटीन की आवश्यकता होती है. पोषण में अधिक सान्द्र अथवा दाना देने से प्रथम दुग्ध-काल में दूध में वसा एवं इसकी मात्रा बढ़ाई जा सकती है परन्तु पशुओं को उनकी इच्छानुसार अधिक दाना देने से भी दूध का उत्पादन कम हो जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि दूध पैदावार हेतु बेहतर आनुवंशिक गुणों वाली बछड़ियों में मोटापा नियंत्रित करने की क्षमता भी अधिक पाई जाती है. यौवनावस्था के बाद तथा गर्भावस्था में उच्च-पोषण स्तर के कारण होने वाले अधिक दैहिक विकास दर का दुग्ध-ग्रंथियों एवं दूध के उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु पोषण गुणवत्ता के कारण प्रथम बार ब्याने वाली गायों में दुग्ध-ग्रंथियों के विकास एवं वृद्धि अवश्य प्रभावित होती है. प्रथम ब्यांत पर बेहतर दैहिक भार वाली गायों की दुग्ध-उत्पादन क्षमता भी अधिक होती है. यौवनावस्था के दौरान दिए गए उच्च-पोषण का प्रथम दुग्ध-काल के दूध उत्पादन पर तो कोई प्रभाव नहीं होता परन्तु इससे सम्पूर्ण दुग्ध-काल में हुई दैहिक भार-वृद्धि कम हो जाती है तथा गाय देरी से मद्काल प्रदर्शित करती है. यदि देखा जाए तो प्रथम दुग्ध-काल में अधिक दूध प्राप्त करने हेतु ब्यांत के समय गाय का दैहिक भार एवं यौवनावस्था के बाद उच्च-वृद्धि दर दोनों ही आवश्यक हैं.
ग्याभिन बछड़ियों को आमतौर पर कम ऊर्जा एवं अधिक रेशे वाले आहार खिलाए जाते हैं ताकि इनकी ऊर्जा-ग्राह्यता को नियंत्रित किया जा सके. प्रसवोपरांत दुग्ध-उत्पादन क्षमता को बनाए रखने हेतु ऐसा करना आवश्यक भी है. गर्भावस्था के 2-6 माह तक पोषण गुणवत्ता का प्रथम ब्यांत के बाद दुग्ध-उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु गर्भावस्था के अंतिम तीन माह में बेहतर आहार खिलाने से दूध अधिक मिलता है. पशुओं में दुग्ध-उत्पादन हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध करवाने के लिए उपयुक्त पोषण नीति आवश्यक है ताकि जनन क्षमता को अधिक बेहतर बनाया जा सके. बढ़ती हुई बछड़ियों को दैहिक रख-रखाव, विकास तथा गर्भावस्था हेतु प्रोटीन-युक्त आहार की आवश्यकता होती है. अनुसंधान द्वारा ज्ञात हुआ है कि 5-10 माह की बछड़ियों को अपेक्षाकृत कम मात्रा में रुक्ष प्रोटीन खिलाने से दुग्ध-ग्रंथियों का विकास अधिक हुआ. अतः 90-220 किलोग्राम दैहिक भार वाली बछड़ियों को 16% तथा 220-360 किलोग्राम भार वाली बछड़ियों को 14.5% रुक्ष प्रोटीन देने की सिफारिश की जाती है जबकि 360 किलोग्राम से अधिक भार होने पर उन्हें 13% रुक्ष प्रोटीन दिया जा सकता है. आहार नियंत्रण एक ऎसी प्रबंधन विधि है जिसमें सीमित आहार खिला कर पशुओं की पोषण-ग्राह्यता एवं दक्षता को बेहतर बनाया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि यह विधि अधिक रेशा-युक्त आहार खिलाए जाने की तरह ही प्रभावशाली हो सकती है तथा इसका दुग्ध-उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता. वैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि प्रथम ब्यांत की होल्सटीन गायों को प्रसव पूर्व कम ऊर्जायुक्त आहार देने पर दुग्ध-काल के पहले 8 महीनों तक कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया.

निष्कर्षतः संतुलित पशु पोषण दैहिक विकास एवं भार में वृद्धि के साथ-साथ दूध कोशिकाओं में वृद्धि एवं अधिक दुग्ध-उत्पादन हेतु अत्यंत आवश्यक है. आनुवंशिक चयन के कारण पशुओं में शारीरिक वृद्धि दर भी बढ़ती है जिससे इनकी रुक्ष प्रोटीन आवश्यकता अधिक हो जाती है. अतः तेज़ी से बढ़ने वाली बछड़ियों में रुक्ष प्रोटीन व ऊर्जा के मध्य अनुपात अधिक होना चाहिए. 

Monday, March 2, 2015

पशुओं को बचा-खुचा भोजन खिलाएं

विश्वभर में उत्पादित होने वाले आहार का लगभग एक तिहाई भाग व्यर्थ में ही नष्ट हो जाता है. मिट्टी में मिलकर बचा-खुचा भोजन मीथेन गैस पैदा करता है जो वैश्विक ताप-वृद्धि के लिए जिम्मेवार है. आहार का उत्पादन करने के लिए जल, ऊर्जा एवं भूमि जैसे अमूल्य संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो आहार के नष्ट होने पर व्यर्थ हो जाते हैं. स्टॉकहोम अंतर्राष्ट्रीय जल संस्थान के अनुसार मनुष्य द्वारा उपयोग में लाए गए जल का लगभग एक चौथाई भाग ऐसे आहार उत्पादन पर व्यय हो जाता है, जिसे कोई भी नहीं खा पाता है. हमारे देश में पशु आहार की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है, परन्तु फिर भी हर वर्ष लाखों टन बचा-खुचा भोजन व्यर्थ में नष्ट हो जाता है. पशुओं के आहार में ऊर्जा एवं पोषण का महत्व सर्वाधिक होता है. अतः उपभोक्ताओं द्वारा व्यर्थ में छोड़ा गया भोजन जैसे फल व सब्जियों के छिलके, फलों का गूदा, बेकरी व रसोईघर के अपशिष्ट पदार्थ आदि पशुओं को संपूरक आहार के रूप में खिलाए जा सकते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों के डेयरी किसान अपने घर में बची हुई रोटियां अक्सर अपने पशुओं को खिलाते रहते हैं, जिसमें कोई हर्ज नहीं है. ऐसे आहार में पोषण की मात्रा बहुत कम या अधिक हो सकती है परन्तु इसके अंतर्गत पशुओं को मांस अथवा गला-सड़ा आहार कभी नहीं खिलाना चाहिए.
बचा-खुचा भोजन सुखा कर एवं पुनः-चक्रित करके पशुओं के लिए अतिरिक्त आहार जुटाया जा सकता है. शहरी इलाकों में जहां भोजन की बर्बादी सर्वाधिक होती हैं वहीं ग्रामीण क्षेत्र के पशु कुपोषण का शिकार हो रहे होते हैं. व्यर्थ छोड़ा गया भोजन पुनः चक्रित करने से न केवल पशुओं के लिए अतिरिक्त राशन जुटाता है बल्कि इससे पशुपालन के व्यवसाय को और भी अधिक चिरस्थायी बनाने में सहायता मिलती है. ज्ञातव्य है कि पशुधन हेतु कड़े जैव-सुरक्षा संबंधी प्रावधानों के कारण पशुओं को बचा-खुचा भोजन नहीं खिलाया जा सकता. जैव-सुरक्षा संबंधी नियम पर्यावरण, लोक स्वास्थ्य एवं राष्ट्र की आर्थिक हानि को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए हैं. अतः पशुओं को खिलाने से पहले रेस्तरां व रसोई-घरों में बचे-खुचे भोजन को जीवाणु रहित अवश्य करें ताकि कोई रोग आदि न फ़ैल सके. पशुओं को इस प्रकार के व्यर्थ आहार खिलाने के लिए निम्न-लिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-
·         पोषण हेतु खिलाए जाने वाले आहार का रासायनिक विश्लेषण करना चाहिए ताकि अल्प-मात्रिक पोषक तत्वों की कमी को संपूरक आहार द्वारा पूरा किया जा सके.
·         भीगे हुए व्यर्थ भोजन में दाना, खनिज मिश्रण व विटामिन मिला कर पोषण हेतु अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है.
·         पशुओं को केवल बचे-खुचे भोजन पर आश्रित रखना हानिकारक है, हालांकि ऐसा आहार उन्हें नियमित चारे के साथ खिलाया जा सकता है.
·         कम शुष्क पदार्थ युक्त बचा-खुचा आहार पशुओं के लिए अधिक उपयुक्त नहीं है क्योंकि इसमें पोषण की मात्रा भी कम होती है. यदि भोजन बासी होने के कारण प्रदूषित हो गया है तो इसे पशुओं को नहीं खिलाना चाहिए.
·         मांस एवं अंडे के छिलकों से मिश्रित बचा-खुचा भोजन पशुओं के लिए अनुकूल नहीं है, अतः इसे खिलाना वर्जित है.
·         किसानों द्वारा खेतों में छोड़ी गई सब्जियां, फसल अवशेष एवं फलों को बीन कर इकट्ठा करना चाहिए ताकि इन्हें पशुओं के लिए उपयोग में लाया जा सके. ध्यातव्य है कि मजदूरी अधिक होने के कारण किसान बहुत-से खाद्य फसल-अवशेष खेतों में ही छोड़ देते हैं.
यूरोप एवं ऑस्ट्रेलिया के क़ानून के अनुसार पशु पदार्थ युक्त जैसे पोल्ट्री फीड, मांस, मछली के आहार रोमंथी पशुओं को नहीं खिलाए जा सकते. इस तरह के प्रतिबन्ध, आहार द्वारा फैलने वाले रोगों को नियंत्रित करने के लिए ही लगाए गए हैं. कुछ देशों में पशुओं की उन्नत नस्लों को खिलाने के लिए वाणिज्यिक आहार अथवा फीड का चलन बढ़ने से डेयरी किसान बचा-खुचा भोजन उपयोग में नहीं लाते हैं. मानव जीवन पद्धति में हो रहे नए परिवर्तनों के कारण भी बचे-खुचे भोजन की गुणवत्ता प्रभावित हुई है. कई देशों में फैक्ट्री में तैयार किया गया फीड सस्ता व अधिक लाभदायक होने के कारण अधिक चलन में आ रहा है. फ़ूड फैक्ट्रियों अथवा आहार उद्योगों से निकलने वाले खाद्य-अवशेषों को आजकल पूर्ण मिश्रित राशन बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है. अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता वाले व्यर्थ खाद्य-अवशेषों को मिट्टी में दबा कर नष्ट कर दिया जाता है. आहार उद्योग से प्राप्त कुछ उपोत्पाद सुखा कर सान्द्र अथवा सम्पूर्ण मिश्रित भोजन के रूप में प्रयुक्त किए जा सकते हैं.
कुछ देशों में व्यर्थ बचे हुए आहार को इकट्ठा करके प्रसंस्करण हेतु फैक्ट्रियों में भेजा जाता है जहां इसे सुखा कर पीस लिया जाता है. इस प्रकार पिसे हुए आहार को पूर्ण मिश्रित राशन के निर्माण हेतु उपयोग में लाया जाता है, परन्तु प्रसंस्करण से पहले ऐसे आहार की गुणवत्ता जांच अवश्य ही पूर्ण कर लेनी चाहिए. यदि आहार उद्योग के उपोत्पाद डेयरी फ़ार्म के निकट ही उपलब्ध हों तो इन्हें सीधा ही पशुओं को खिलाया जा सकता है. ये ठोस या तरल दोनों ही अवस्था में खिलाए जा सकते हैं.

यदि आहार खाद्य गुणवत्ता की कसौटी पर खरा न उतरे तो इसे कम्पोस्ट खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है. कम्पोस्ट खाद बनाने से व्यर्थ हुए भोजन का फैलाव लगभग पचास प्रतिशत तक कम हो जाता है. कम्पोस्ट बनाने की प्रक्रिया तो सुरक्षित है परन्तु इससे पैदा होने वाली मीथेन एक असरकारक ग्रीन हाउस गैस है, जो वैश्विक ताप-वृद्धि हेतु उत्तरदायी है. गले-सड़े आहार अथवा भोजन को छोटे आकार के डाइजेस्टर में डाल कर गैर-परम्परागत विद्युत ऊर्जा भी उत्पादित की जा सकती है. एक अनुमान के अनुसार अगर अमेरिका के केवल 50% व्यर्थ भोजन को ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में किण्वित करके विद्युत ऊर्जा बनाई जाए तो यह 25 लाख घरों में वार्षिक आपूर्ति हेतु पर्याप्त हो सकती है.