Tuesday, December 17, 2013

पशु चारे में सूक्ष्म-मात्रिक खनिजों का महत्त्व

पशुओं में उत्पादन क्षमता बनाए रखने एवं अल्पता सम्बंधित विकारों को नियंत्रित करने हेतु आहार में सूक्ष्म-मात्रिक खनिजों का अत्याधिक महत्त्व है. पशुओं में सूक्ष्म-मात्रिक खनिज आवश्यकता तथा पाचनशीलता कई कारकों पर निर्भर करती है. इसका निर्धारण करने के लिए सूक्ष्म-मात्रिक खनिज पदार्थों की रासायनिक सरंचना का अध्ययन करना आवश्यक है. पशुओं को आवश्यकता से अधिक खनिज संपूरक खिला कर इसका उनके स्वास्थ्य एवं उत्पादन पर पड़ने वाला प्रभाव देखा जा सकता है.
जिंक पशुओं के शरीर में धातु-एंजाइम अथवा धातु-प्रोटीन से सम्बंधित रहता है जिसका जीन प्रकटन में महत्वपूर्ण योगदान है. इसके कारण शरीर में कई क्रियाएँ जैसे कोशिका विभाजन, वृद्धि, हारमोन उत्पादन, चयापचय, भूख नियंत्रण तथा रोग-प्रतिरोध क्षमता बेहतर होती है. ये कई प्रकार के एंजाइमों जैसे सुपरऑक्साइड डिसम्यूटेज़ के साथ मिलकर चयापचयी क्रियाओं में उत्प्रेरक का काम करते हैं. पशुओं के खुरों तथा थनों के स्थान पर रक्षात्मक केराटिन  के निर्माण हेतु भी इसकी आवश्यकता पड़ती है जो इनके खुरों तथा अयन-त्वचा की संरचना को सामान्य बनाए रखता है. ताम्बा तथा मेंग्नीज़ धातु-एंजाइम के भाग होने के कारण श्वसन, कार्बोज व वसा चयापचय, ऑक्सीकरण के विपरीत क्रियाओं तथा कोलेजन के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान करते हैं. सेरुलोप्लाज्मिन नामक एंजाइम ताम्बे के साथ मिलकर लोहे की उपलब्धता सुनिश्चित करता है. जिंक की ही भांति ताम्बा तथा मेंग्नीज़ केराटिन निर्माण में सहायक हैं तथा सुपरऑक्साइड डिसम्यूटेज़ के ही भाग हैं.
सिलीनियम भी विभिन्न प्रकार के 25 सिलीनो-प्रोटीन का भाग है. इन प्रोटीनों में सल्फर के स्थान पर सिलीनियम होता है जो प्रोटीनों की हाइड्रोजन प्रदान करने की क्षमता बढाता है तथा अपचयन संबधी अभिक्रियाओं में सहायक होता है. आयोडो-थाइरोनीन डीआयोडीनेज़ सिलीनो-प्रोटीन युक्त एक ऐसा एंजाइम है जो चयापचय को नियमित रखता है. इसी प्रकार ग्लूटाथाईऑन परऑक्सीडेज़ तथा थायोरीडोक्सीन रीडक्टेज़ भी एंटी-ऑक्सिडेंट तथा रोग-प्रतिरोध तंत्र का एक मुख्य भाग हैं. पशुओं में जिंक, ताम्बा, मेंगनीज़ तथा सिलीनियम युक्त प्रोटीन व एंजाइम वृद्धि, उत्पादन, जनन तथा स्वस्थ बनाए रखने में सहायता करते हैं. इन आहार-घटकों में कमी होने पर अल्पता संबंधी विकार होने लगते हैं तथा पशुओं की क्षमता भी कम होने लगती है. इसी कारण से पशुओं के आहार में सूक्ष्म-मात्रिक खनिज मिलाए जाते हैं. यद्यपि अल्प-मात्रिक खनिज बहुत सी दैहिक क्रियाओं के लिए अति आवश्यक हैं. अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक की रासायनिक संरचना भिन्न होने के कारण ये पशु उत्पादन एवं अच्छे स्वास्थ्य हेतु उपलब्ध हैं. इनकी कमी होने पर पशु-क्षमता में कमी आती है.
सामान्यतः जिंक, ताम्बा व मेंगनीज़ संपूरक जिंक सल्फेट, क्यूपरिक सल्फेट अथवा मेंगनीज़ सल्फेट के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं. इन लवणों में अल्प-मात्रिक खनिज शुष्क अवस्था में सल्फेट से संबद्ध रहता है परन्तु रुमेन में जाकर यह विघटित हो जाता है. रुमेन में अल्प-मात्रिक खनिज बहुत ही कम मात्रा में अवशोषित हो पाते हैं क्योंकि इनका अवशोषण छोटी आंत में ही संभव होता है. विघटित रूप में अल्प-मात्रिक खनिज रुमेन में जाकर अघुलनशील यौगिक बन जाते हैं जो पाचनशील न होने के कारण मल के द्वारा शरीर से निष्काषित हो जाते हैं.  ये खनिज पौधों में पाए जाने वाले पोलीफीनोल व शर्करा से संबद्ध हो कर अपचनशील जटिल पदार्थों का निर्माण करते हैं जिससे छोटी आंत में इनका अवशोषण कम होता है.
आजकल अकार्बनिक लवणों के स्थान पर जिंक, ताम्बे व मेंगनीज़ के कार्बनिक अणु जो प्रोटीन अथवा अमीनो-एसिड के रूप में होते हैं, का उपयोग किया जा रहा है. बाज़ार में कई प्रकार के कार्बनिक अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक उपलब्ध हैं. रासायनिक सरंचना के आधार पर इन सब का वर्गीकरण कॉम्प्लेक्स, चीलेट तथा प्रोटीनेट के रूप में किया जा सकता है. कॉम्प्लेक्स में खनिज व कार्बनिक यौगिक के मध्य स्थायी अथवा को-वालेंट बन्ध होना अनिवार्य नहीं है परन्तु चीलेट तथा प्रोटीनेट के मध्य ऐसा होना आवश्यक है जैसे जिंक मीथियोनिन व जिंक प्रोटीनेट आदि.  सेलेनाईट तथा सेलिनेट से सोडियम लवण के रूप में अकार्बनिक सेलिनियम की प्राप्ति होती है जबकि इसका कार्बनिक रूप सेलिनियम-ईस्ट होता है. यह सेलिनियम-मिथियोनिन के रूप में भी प्रयुक्त होता है जिसमें सेलिनियम स्थाई बंध द्वारा अमीनो-अम्ल से जुडा रहता है जो सल्फर का स्थान लेता है.
सूक्ष्म-मात्रिक खनिजों से वांछित लाभ प्राप्त करने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इनका विघटन रुमेन में न होने पाए. ‘कार्बनिक’ अल्प-मात्रिक खनिज रुमेन में विघटित न होने के कारण छोटी आंत में अवशोषित होने के लिए अधिक मात्रा में उपलब्ध रहते हैं.  एक उत्तम खनिज संपूरक को अम्लीय वातावरण से अप्रभावित रहना चाहिए परन्तु वास्तव में ऐसा संभव नहीं है. पाचन तंत्र के बाहर किए गए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कार्बनिक खनिज, अकार्बनिक अल्प-मात्रिक खनिजों की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में अवशोषित होते हैं. इसके बावजूद कार्बनिक अल्प-मात्रिक खनिजों को ऊपरी पाचन नली में कुछ न कुछ क्षति तो अवश्य पहुंचती है. ज्ञातव्य है कि खनिजों का अधिक मात्रा में अवशोषण बेहतर उत्पादन क्षमता का द्योतक है. विभिन्न प्रकार के अल्प-मात्रिक खनिजों की तुलना करना एक कठिन कार्य है. इनकी तुलना पशु पोषण परीक्षणों तथा ऊत्तक संवर्धन विधियों द्वारा ही संभव है. पशुओं के शरीर में अल्प-मात्रिक खनिजों के अवशोषण तथा उपलब्धता का मापन करना संभव नहीं है तथा इसे जैव-उपलब्धता के सन्दर्भ में ही देखना ही उचित होगा. जैव-उपलब्धता का अभिप्रायः पशुओं के शरीर में हुए खनिजों के अवशोषण से है.  जिस खनिज की जैव-उपलब्धता अधिक होगी वह पशुओं में बेहतर स्वास्थ्य एवं अधिक उत्पादन सुनिश्चित कर सकेगा. अधिक जैव-उपलब्धता युक्त खनिज कम मात्रा में खिलाना पड़ता है जिससे खनिज संपूरक की बचत होती है. जैव-उपलब्धता का सही मूल्यांकन करने के लिए पोषण आधारित परीक्षण किए जाते हैं जिनमें पशुओं को विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अल्प-मात्रिक खनिज दिए जाते हैं. यह मापन रक्त तथा लीवर में खनिज के सांद्रण पर निर्भर करता है. खिलाए गए तथा मल द्वारा निष्काषित अल्प-मात्रिक खनिज मात्रा का अंतर अवशोषित किए गए खनिज की मात्रा को दर्शाता है. इस प्रकार का परीक्षण वातावरणीय परिस्थितियों, पशुओं की दुग्धावस्था एवं आहार घटकों के संयोजन पर भी निर्भर करता है. अक्सर देखा गया है कि विभिन्न परिस्थितियों से प्राप्त परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर परिणामों में अत्याधिक भिन्नता पाई गई है जिनसे सटीक निष्कर्ष निकालना कठिन है. निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रक्त में पाए जाने वाले खनिज की सांद्रता में विशेष अंतर न होने के बावजूद कार्बनिक खनिज लेने वाले पशुओं में बेहतर दुग्ध उत्पादन एवं खुर स्वास्थ्य देखने को मिला है. अकार्बनिक की अपेक्षा ‘कार्बनिक’ अल्प-मात्रिक खनिज शारीरिक वृद्धि, दुग्ध उत्पादन बढाने तथा जनन सुधार हेतु अधिक सक्षम पाए गए हैं. जैव उपलब्धता पर किए गए अनुसंधान से यह स्पष्ट है कि इसके मापन हेतु किए जा रहे परीक्षण इतने संवेदनशील नहीं हैं कि इसका सटीक मूल्यांकन कर सकें.
कार्बनिक तथा अकार्बनिक सेलिनियम का अवशोषण तथा चयापचय भिन्न होता है. पाचक ऊत्तकों द्वारा अकार्बनिक सेलिनियम की पहचान हो जाती है तथा यह अवशोषित हो कर सेलिनो-प्रोटीन में परिवर्तित हो जाता है. कार्बनिक सेलिनियम जो सेलिनियम-मिथियोनिन के रूप में होता है, को कोशिकाएं सेलिनियम-वाहक के रूप में नहीं पहचान पाती. परिणाम-स्वरुप सेलिनियम-मिथियोनिन अवशोषित हो जाती है. यदि सेलिनियम मिथियोनिन का अपघटन कोशिका में हो जाए तो कोशिका इसे सेलिनियम के रूप में पहचान कर अवशोषित कर लेती है. परन्तु अपघटन न होने की स्थिति में इसका उपयोग ऐसे प्रोटीनों में होता है जिन्हें सेलिनियम की आवश्यकता न हो. ‘कार्बनिक’ सेलिनियम का पाचन अकार्बनिक सेलिनियम की तुलना में अधिक होता है. सेलिनियम का अवशोषण ‘सेलेनाईट’ के रूप में होता है. जो सेलिनियम सेलिनेट के रूप में होता है, वह भी रुमेन में सेलनाईट में परिवर्तित हो जाता है. लगभग एक तिहाई सेलेनाईट अघुलनशील अवस्था में मल द्वारा निष्काषित हो जाता है. छोटी आंत तक पहुँचाने वाले सेलनाईट का लगभग 40 % भाग ही अवशोषित हो पाता है. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सेलेनाईट की तुलना में सेलिनियम-ईस्ट की पाचाकता कहीं अधिक है. पशुओं को सेलिनियम-ईस्ट खिलाने पर अकार्बनिक सेलिनियम की तुलना में दुग्ध सेलिनियम स्तर भी अधिक पाया गया. हालांकि रक्त और दूध में बड़ी हुई सेलिनियम की सांद्रता किसी हद तक सेलिनियम युक्त अमीनो-अम्ल के कारण भी हो सकती है.
तनाव अथवा संक्रमण काल के दौरान अनुमानित आवश्यकता से अधिक मात्रा में अल्प-मात्रिक खनिज खिलाने पर डेयरी पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार होता है. इसका मुख्य कारण इन अल्प-मात्रिक खनिजों का एंटी-ऑक्सिडेंट तंत्र को दिया गया विशेष योगदान ही है. आक्सीकरण एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें स्वतंत्र आयन बनते रहते हैं जो कोशिकाओं को नष्ट कर सकते हैं. एंटी-ऑक्सिडेंट तंत्र  इन स्वतंत्र आयनों को नष्ट कर देता है. सुपर ऑक्साइड डिसम्यूटेज़ में अपनी उपस्थिति के कारण जिंक, ताम्बा तथा मेंगनीज़ इस तंत्र का अभिन्न अंग हैं. सुपर ऑक्साइड डिसम्यूटेज़, स्वतंत्र आयनों को हाइड्रोजन पर-ऑक्साइड में परिवर्तित कर देता है जिसका बाद में पानी बन जाता है. ब्यांत, संक्रमण तथा वातावरणीय उच्च तापमान से होने वाले तनाव के समय स्वतंत्र आयनों का उत्पादन बढ़ जाता है जबकि अपेक्षाकृत कम संख्या में ही ये आयन नष्ट होते हैं.  इन परिस्थितियों में कोशिकाओं में विद्यमान वसा, कार्बोज तथा प्रोटीनों का अपघटन होने लगता है. अधिक दूध देने वाली गऊएँ इससे अधिक प्रभावित होती हैं. यदि पशुओं को अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक खिलाया जाए तो स्वतंत्र आयनों के कारण नष्ट होने वाली कोशिकाओं की संख्या को कम किया जा सकता है.

श्वेत रक्त कणिकाओं की झिल्ली पर स्वतंत्र आयनों का प्रभाव अधिक पड़ता है जिससे इनकी रोग प्रतिरोध क्षमता कम हो जाती है. इन कणिकाओं की झिल्ली में असंतृप्त वसीय अम्लों की मात्रा अधिक होती है जो स्वतंत्र आयनों द्वारा शीग्रता से नष्ट हो जाते हैं. अनुसंधान अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि पशुओं को अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक देने से उनकी रोग-प्रतिरोध क्षमता में सुधार होता है. रक्त में अधिक सेलिनियम सांद्रता वाले पशुओं में अपेक्षाकृत कम संख्या में कायिक कोशिकाएं पाई जाती हैं. अतः पशुओं को आहार में सेलिनियम देने से इनके दूध की गुणवत्ता भी बेहतर होती है.

Saturday, September 7, 2013

संक्रमणकालीन गायों को क्या खिलाएं?


संक्रमण काल के दौरान शरीर में प्रसव एवं दुग्ध-उत्पादन सम्बन्धी कई प्रकार के परिवर्तन होते हैं जो उत्तकों के निर्माण एवं आहार उपयोगिता को प्रभावित करते हैं. यद्यपि शरीर में दुग्ध संश्लेषण एवं बच्चे की बढ़त के कारण पोषक तत्वों की माँग तो बढ़ रही होती है तथापि अपेक्षाकृत कम आहार ग्राह्यता के कारण गाय कमजोर होने लगती है. यह आश्चर्य की बात है कि राष्ट्रीय अनुसन्धान परिषद के अनुसार सभी पशुओं को समान रूप से एक जैसा आहार देने की संस्तुति की गई है जो पर्याप्त नहीं है. डेयरी कृषकों द्वारा भी संक्रमण काल में गायों के आहार पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है. अतः इस अवधि में पोषक तत्वों की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए संक्रमण-काल के दौरान गायों को अधिक पोषक तत्व उपलब्ध करवाने की अत्यंत आवश्यकता है.
प्रसवोपरांत ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन के कारण पाचन नली में पचनीय पदार्थ धीमी गति से चलायमान होते हैं जिससे रुमेन में किण्वन अधिक होता है. इस समय वाष्पित होने वाले वसीय अम्लों की मात्रा अधिक होने से चयापचय सम्बन्धी विकार जैसे चर्बी-युक्त जिगर, कीटोसिस, एसिडोसिस तथा खनिज चयोपचय का संतुलन बिगड़ने से दुग्ध-ज्वर, एडीमा व अधिक केल्शियम के कारण होने वाली गंभीर समस्याएँ आ सकती हैं. ऐसे पशुओं में जेर न गिराना, गर्भाश्य की सूजन तथा थनैला रोग होने की संभावना भी अधिक प्रबल होती है. अतः दुग्ध-संश्लेषण के कारण प्रसवोपरांत पशुओं के पोषण पर ध्यान देना अनिवार्य है. प्रसव से पहले एवं दुग्धकाल आरम्भ होने तक रक्त में इंसुलिन तो कम परन्तु ग्रोथ हार्मोन की मात्रा अधिक होने लगती है. इसी प्रकार शरीर में थाइरोक्सीन, इस्ट्रोजन, ग्लुकोकोर्टिकोयड तथा प्रोलेक्टिन हार्मोनों में भी बदलाव आते हैं जो प्रसवोपरांत धीरे धीरे सामान्य अवस्था में आने लगते हैं. इन परिवर्तनों के कारण पशु को भूख कम लगती है तथा इनकी खुराक ग्राह्यता बहुत कम हो जाती है. ऐसा होने पर पशु अपने शरीर में जमा की गई वसा रूपी ऊर्जा व जिगर में संग्रहीत ग्लाइकोजन का उपयोग करने लगता है जिसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. ज्ञातव्य है कि रक्त में इस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्टीरोन के अनुपात में परिवर्तन आने से पशु की शुष्क पदार्थ ग्राह्यता कम हो जाती है.
प्रसव से पहले के संक्रमण-काल में रक्त-शर्करा लगभग सामान्य रहती है जो प्रसव के समय तीव्रता से बढ़ती है तथा प्रसवोपरांत पुनः धीरे धीरे कम होने लगती है. ऐसा अधिक मात्रा में ग्लुकागोन व ग्लुकोकोर्टिकोयड हार्मोनों के कारण जिगर में ग्लाइकोजन के अपघटन से होता है. यद्यपि स्तन ऊत्तकों एवं ग्रंथियों को लेक्टोज संश्लेषण हेतु ग्लूकोज की आवश्यकता प्रसवोपरांत भी रहती है फिर भी जिगर में ग्लाइकोजन की उतनी अधिक क्षति नहीं होती. यह दुग्ध-उत्पादन हेतु अन्य गैर-ग्लाइकोजन आधारित स्रोतों से ग्लूकोज संश्लेषित होने के कारण सम्भव होता है. स्पष्ट है कि चयापचय सम्बन्धी संक्रमण-काल की सभी बड़ी घटनाएं प्रसवोपरांत ही होती हैं. यदि इस समय जिगर में ट्राइग्लिसराइड की मात्रा बढ़ जाए तथा ग्लाइकोजन कम हो जाए तो गायों में ‘कीटोसिस’ जैसे चयापचय सम्बन्धी विकार की स्थिति बन जाती है. अतः संक्रमण-काल के दौरान होने वाले तनाव को कम करने के लिए गायों हेतु पहले से ही संतुलित आहार की व्यवस्था कर लेनी चाहिए.  इस अवधि में अधिक ऊर्जा ग्राह्यता सुनिश्चित करने के साथ साथ सुरक्षित वसा व जिगर में ग्लाइकोजन की क्षति को न्यूनतम रखना होगा. ग्याभिन पशु के बछड़े की बढ़त एवं विकास को देखते हुए इसे अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है परन्तु राष्ट्रीय अनुसन्धान परिषद के अनुसार सभी पशुओं को एक जैसी खुराक देने की ही सिफारिश की गई है. इन परिस्थितियों के चलते पशु ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति में आ जाते हैं जिससे प्रसवोपरांत चयापचय सम्बन्धी गंभीर विकारों का खतरा बढ़ जाता है. अतः ऐसी स्थिति में गाय को 1.5 किलोग्राम प्रतिदिन की दर से अतिरिक्त दाना खिलाया जाना चाहिए.
पोषण सम्बन्धी अनुसन्धान से ज्ञात हुआ है कि गर्भावधि के दौरान राष्ट्रीय अनुसन्धान परिषद द्वारा की गई रुक्ष प्रोटीन अनुशंशा भी पर्याप्त नहीं है. प्रसव से पूर्व यदि रुक्ष प्रोटीन प्रचुर मात्रा में न खिलाई जाए तो पशु ऋणात्मक नाइट्रोजन संतुलन की अवस्था में आ सकते हैं. यदि पशुओं को इस अनुशंशा से अधिक पोषक आहार उपलब्ध करवाए जाएं तो इन्हें प्रसव के समय कोई कठिनाई नहीं होती. अतः प्रसव से पहले ऐसे कारकों की पहचान करना आवश्यक है जिनके कारण पोषण ग्राह्यता कम होती है.
विभिन्न अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि अधिक मोटी या चर्बी चढ़ी गायों को प्रसवोपरांत अपेक्षाकृत कम भूख लगती है. ऐसी गायों में स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याएँ भी अधिक पाई गई हैं. चारे तथा दाने का अनुपात बढ़ाने से प्रसव पूर्व इनकी खुराक बढ़ाई जा सकती है. ऐसा करने से प्रसव पूर्व ही रुमेन में प्रोपियोनेट अम्ल का उत्पादन बढ़ने लगता है. पशुओं की खुराक में रेशा-युक्त पदार्थ अधिक होने से रुमेन में अम्ल अवशोषण करने वाले ऊत्तकों का विकास तीव्रता से होता है, जो वाष्पित होने वाले वसीय अम्लों को शीघ्र ही अवशोषित कर लेते हैं. ऐसा होने से रुमेन की अम्लता बढ़ नहीं पाती तथा अधिक दाना खाने से एसिडोसिस की स्थिति भी टल जाती है. अतः प्रसवोपरांत अधिक लाभ हेतु गायों को प्रसव से पूर्व ही दाना खिलाया जा सकता है. इन परिस्थितियों में जिगर द्वारा अधिक मात्रा में ग्लूकोज संश्लेषण होने लगता है तथा ग्लाइकोजन की क्षति होने से बच जाती है.  प्रोपियोनेट तथा ग्लूकोज दोनों ही प्रसव के समय इंसुलिन की मात्रा बढ़ा कर चर्बी व ग्लाइकोजन के क्षय को रोकते हैं. इस प्रकार कीटोसिस जैसे विकार होने की संभावना भी कम हो जाती है.  
हालांकि दुग्ध-काल के आरम्भ में संपूरक वसा खिलाने से शारीरिक भार में कमी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता फिर भी इसके कारण चर्बी से मिलने वाले गैर-एस्टरीकृत वसीय अम्लों की मात्रा बढ़ जाती है.  यह वसा विघटन या वसीय अम्लों के पुनः एस्टरीकरण के कारण हो सकता है.  वसा खिलाने से गायों के भार में अभिवृद्धि होती है तथा ये धनात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति में पहुँच जाती हैं. आरम्भ में इन गायों में कम पोषण ग्राह्यता के कारण वसा खिलाने का कोई विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिलता. इसी प्रकार प्रसवोपरांत भी अधिक वसा खिलाने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि उस समय गाय ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति में होती हैं.

      संक्रमण-काल में कम प्रोटीन-युक्त आहार देने से गाय के संग्रहीत ऊर्जा भंडारों का क्षय होता है तथा जनन, दुग्ध-काल  एवं स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है. प्रचुर मात्रा में प्रोटीन खिलाने से अन्तःस्त्रावी शारीरिक क्रियाएँ सामान्य होती हैं तथा दुग्धावस्था में सुधार होता है. प्रायः देखा गया है कि दूध न देने वाली गायों की पोषण आवश्यकताओं पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है.  अतः आवश्यकता है कि ब्याने से पूर्व संक्रमण-काल के दौरान गाय की आहार आवश्यकताओं का निर्धारण किया जाए ताकि उस समय गर्भ में पल रहे बछड़े को पर्याप्त मात्रा में पोषण मिल सके. गायों की शुष्क पदार्थ ग्राह्यता एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ा कर जनन क्रिया, दुग्धावस्था व स्वास्थ्य में अधिकाधिक सुधार लाया जा सकता है. प्रसव पूर्व शुष्क पदार्थों का पोषण घनत्व तथा ग्राह्यता बढ़ा कर भी प्रसवोपरांत इनकी खुराक को बढ़ाया जा सकता है. गायों की खुराक में पर्याप्त खनिज मिश्रण भी मिलाना चाहिए ताकि उन्हें कोई खनिज अल्पता सम्बन्धी विकार न हो सकें.

Saturday, March 23, 2013

डेयरी फार्मिंग में कार्बन फुट-प्रिंट नियंत्रण




संसार भर में कृषि सम्बन्धी गतिविधियों के कारण लगभग 16% ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन होता है इसका 10 % उत्सर्जन केवल डेयरी पशुओं के कारण होता है. एक गाय लगभग 150-400 लीटर तक मीथेन पैदा कर सकती है. मानवीय कारणों से होने वाले समस्त मीथेन उत्सर्जन का एक चौथाई भाग पशुओं से होता है जो वैश्विक ताप वृद्धि का एक बड़ा कारक बताया जाता है. अंतर्राष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुमान के अनुसार यदि रुमान्थ्री पशुओं की संख्या इसी प्रकार बढ़ती रही तो वर्ष 2030 तक मीथेन का उत्पादन 60% तक बढ़ जाएगा. वैश्विक मीथेन गैस उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई भाग विकासशील देशों के रुमान्थ्री पशुओं के कारण होता है. इस बढते हुए प्रदूषण के कारण पर्यावरणविद् अक्सर ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने की बात करते हैं.
ग्रीन हाउस गैसें जैसे कार्बनडाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड तथा जल वाष्प सौर ऊर्जा को अवशोषित कर लेते हैं तथा वैश्विक तापवृद्धि का कारण बनते हैं.  इन गैसों के उत्सर्जन से कार्बन फुटप्रिंट का आकार बढ़ता है जो हमारे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है.  मीथेन, कार्बनडाइऑक्साइड गैस की तुलना में 21 गुणा अधिक सौर ऊष्मा अवशोषित कर सकती है जबकि नाइट्रस ऑक्साइड 310 गुणा गर्मी अवशोषित कर सकती है. अतः इससे स्पष्ट है कि मीथेन का सूचकांक 21 तथा नाइट्रस ऑक्साइड का वैश्विक ताप वृद्धि सूचकांक 310 है.  ऊष्मा अवशोषित करने वाली ये गैसें ग्रीन हाउस की उन कांच की खिड़कियों की तरह हैं जो पृथ्वी को अधिक तापमान से बचाती हैं. इन गैसों का अधिकाँश उत्सर्जन खनिज तेलों के जलने से भी होता है. पशुओं के रुमेन से निकलने वाली मीथेन तथा मल-मूत्र से उत्पन्न नाइट्रस ऑक्साइड मुख्यतः डेयरी फार्मों में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं. इन गैसों के अत्याधिक उत्सर्जन से पृथ्वी पर कार्बन फुटप्रिंट बढ़ने लगता है जिसे डेयरी फार्म में उचित प्रबंधन प्रणाली द्वारा नियंत्रित कर सकते हैं. इसके लिए डेयरी किसानों को सभी क्षेत्रों जैसे चारा एवं दुग्ध उत्पादन में अपनी डेयरी की कार्य कुशलता बढ़ाने की आवश्यकता होगी. मीथेन गैस भी ऊर्जा का ही एक रूप है. इसे गंवाने का सीधा अर्थ है कि उत्पादन में हानि.
यदि आहार पचनीयता एवं ऊर्जा व प्रोटीन में संतुलन बना रहे तो इस गैस की क्षति को काफी कम किया जा सकता है. गायों को बेहतर गुणवत्ता का घास खिलाने से मीथेन की पैदावार तो अधिक होती है परन्तु प्रति लीटर दुग्ध  उत्पादन हेतु इस गैस का उत्सर्जन कम हो जाता है. यदि पोषण में प्रोटीन की मात्रा कुछ कम व कार्बोहाइड्रेट अधिक दिया जाए तो रुमेन में मीथेन पैदा करने वाले बैक्टीरिया कम पनपते हैं तथा दूध की पैदावार बढ़ जाती है.
      खेतों में नाइट्रोजन का मुख्य स्रोत पशुओं का मल-मूत्र, रासायनिक खाद एवं गले-सड़े वनस्पति के अवशेष हैं, जिन्हें फलीदार पौधों की जड़ों में पाए जाने वाले नाइट्रोजनीकरण बैक्टीरिया नाइट्रेट में बदल देते हैं ताकि पौधों को नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा मिलती रहे. यदि भूमिगत नाइट्रोजन का नाइट्रेट के रूप में स्थिरीकरण न हो तो यह नाइट्रस ऑक्साइड व नाइट्रोजन बन कर वायुमंडल में चली जाती है तथा वैश्विक ताप-वृद्धि का कारण बनती है. डेयरी फार्मों में नाइट्रस ऑक्साइड का मुख्य स्रोत पशुओं का मलमूत्र है, परन्तु रासायनिक खाद व फलीदार फसलों से भी इसका अधिक उत्सर्जन होता है.  इससे स्पष्ट है कि हमें भूमिगत नाइट्रोजन को अनावश्यक बढ़ने से रोकना होगा.  मिट्टी में नाइट्रोजन-युक्त खाद मिलाने से पहले यह अवश्य सोचें कि खाद का मूल्य कितना है तथा इससे पैदा होने वाली फसल अपना खर्च निकाल कर किसान को उचित लाभ दे सकती है अथवा नहीं. नाइट्रोजन खाद मिट्टी में तभी मिलाएं जब उसमें कुछ बोया गया है तथा उग भी रहा है ताकि पौधे इस नाइट्रोजन को उत्पादकता में परिवर्तित कर सकें.
पशुओं को गीली मिट्टी में अधिक समय तक न रखें क्योंकि ऐसा करने से इसमें पशुओं का मलमूत्र अधिक मात्रा में जमा हो जाता है. कीचड़ में ऑक्सीजन की कमी के कारण अधिक मात्रा में नाइट्रस ऑक्साइड बनती है तथा यह गैस वायुमंडल में जाकर तापवृद्धि का कारण बनती है. खेतों में यथा-सम्भव नाइट्रोजन युक्त खाद का उचित उपयोग करना चाहिए ताकि इसकी अनावश्यक बर्बादी को रोका जा सके. गर्मियों के मौसम में अगर खेतों में पानी खडा हो तो इससे भी नाइट्रोजन की क्षति अधिक होती है. इसी प्रकार वर्षा से पूर्व भी नाइट्रोजन-युक्त खाद के प्रयोग से बचना चाहिए. यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि खाद नाइट्रेट के रूप में न हो बल्कि  यूरिया अथवा डाइ-अमोनियम  फोंस्फेट के रूप में होनी चाहिए ताकि नाइट्रोजन की क्षति को यथा सम्भव नियंत्रित किया जा सके.
      हमारे देश में दूध न देने के कारण आवारा पशुओं की संख्या बहुत अधिक है तथा ये पशु चारे के सीमित संसाधनों पर ही निर्भर होते हैं. यदि चारे को केवल दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं को खिलाया जाए तो प्रति पशु पैदावार बढ़ेगी तथा चारे के कारण बनने वाली ग्रीन हाउस गैसों में भी कमी आएगी. ये आवारा पशु कृषि भूमि पर भी अनावश्यक दबाव बनाते हैं जिससे खेती की पैदावार पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. यदि कृषि एवं डेयरी का व्यवसाय संगठित क्षेत्र में हो तो संसाधनों का युक्ति-संगत उपयोग किया जा सकता है. ऐसा करने से जो बिजली व पानी की जो बचत होगी, उससे हम न केवल अतिरिक्त घरों में रोशनी कर पाएंगे बल्कि दूर-दराज स्थित घरों में पीने का पानी भी उपलब्ध करवा सकते हैं. डेयरी पशु पालन के क्षेत्र में उन्नत प्रौद्योगिकी अपना कर कार्बन फुट-प्रिंट को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है.
काश ऐसा होता कि बायो-तकनीकी द्वारा विकसित पशु हमारे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा पाएं अथवा हम ऐसी फसलें उगाने लगें जिनसे इन गैसों का उत्सर्जन न्यूनतम हो. यदि प्रति पशु दूध की पैदावार बढाई जाए तो इस उत्सर्जन को सीमित अवश्य किया जा सकता है. पशुओं से होने वाले गैस उत्सर्जन के अतिरिक्त गोबर खाद से भी नाइट्रोजन व कार्बनडाइऑक्साइड गैसों का उत्सर्जन होता है. जैसे दूध की पैदावार बढ़ रही है वैसे ही इसकी माँग भी बढ़ती जा रही है. प्रति पशु दूध की पैदावार बढ़ाने के लिए हमें कम संख्या में पशुओं की आवश्यकता होगी तथा इनकी चारा आवश्यकता भी कम होगी. हालांकि वर्तमान में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने हेतु कोई क़ानून हमारे देश में लागू नहीं हैं फिर भी भविष्य में ऐसी सोच अवश्य विकसित हो सकती है. कई देशों में उन्नत डेयरी प्रबंधन प्रणाली अपना कर कार्बन फुटप्रिंट घटाने पर उचित प्रोत्साहन राशि भी प्रदान की जाती है.  
आजकल कुछ ऐसे पदार्थों पर भी अनुसंधान हो रहा है, जिन्हें भविष्य में पशुओं की खुराक में मिला कर देने से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकेगा. मोनेंसिन तथा वर्जीनियामाइसिन कुछ ऐसे एंटी-बायोटिक हैं जिन्हें पशुओं की खुराक में मिलाकर देने से मीथेन उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया कम होते हैं. हालांकि कुछ समय बाद इन बैक्टीरिया की संख्या फिर से बढ़ने लगती है.  अतः इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है.  यदि पशुओं के आहार की पाच्कता बेहतर हो तो मीथेन उत्सर्जन कम होता है. पशुओं को विभिन्न प्रकार के आहार एवं संपूरक खिलाकर अध्ययन करना होगा कि मीथेनोजन द्वारा मीथेन के उत्पादन को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है अथवा इन्हें प्रभावहीन करने के कौन कौन से तरीके दीर्घावधि में लाभकारी हो सकते हैं. पशुओं में कम रेशा-युक्त आहार की तुलना में अधिक मात्रा में रेशा-युक्त आहार देरी से पचता है तथा अधिक मीथेन गैस पैदा करने में सक्षम होता है. मीथेन गैस उत्सर्जन कम करने के किए यह आवश्यक है कि चारा रुमेन से निकल कर यथाशीघ्र एबोमेसम तथा छोटी आंत की ओर बढ़ जाए. प्रजनन द्वारा ऐसे पशु विकसित किए जा सकते हैं जो अधिक दूध उत्पादित कर सकें ताकि प्रति लीटर दूध की तुलना में अपेक्षा कृत कम मीथेन का उत्सर्जन हो.  डेयरी फ़ार्म में छप्पर एवं छाया हेतु हरे-भरे वृक्ष भी लगाने चाहिएं जो ग्रीन हाउस गैसों को अवशोषित करके हमें बेहतर पर्यावरण प्रदान करते हैं.