पशुओं में
उत्पादन क्षमता बनाए रखने एवं अल्पता सम्बंधित विकारों को नियंत्रित करने हेतु
आहार में सूक्ष्म-मात्रिक खनिजों का अत्याधिक महत्त्व है. पशुओं में सूक्ष्म-मात्रिक
खनिज आवश्यकता तथा पाचनशीलता कई कारकों पर निर्भर करती है. इसका निर्धारण करने के
लिए सूक्ष्म-मात्रिक खनिज पदार्थों की रासायनिक सरंचना का अध्ययन करना आवश्यक है.
पशुओं को आवश्यकता से अधिक खनिज संपूरक खिला कर इसका उनके स्वास्थ्य एवं उत्पादन
पर पड़ने वाला प्रभाव देखा जा सकता है.
जिंक पशुओं के शरीर में धातु-एंजाइम अथवा
धातु-प्रोटीन से सम्बंधित रहता है जिसका जीन प्रकटन में महत्वपूर्ण योगदान है. इसके
कारण शरीर में कई क्रियाएँ जैसे कोशिका विभाजन, वृद्धि, हारमोन उत्पादन, चयापचय,
भूख नियंत्रण तथा रोग-प्रतिरोध क्षमता बेहतर होती है. ये कई प्रकार के एंजाइमों
जैसे सुपरऑक्साइड डिसम्यूटेज़ के साथ मिलकर चयापचयी क्रियाओं में उत्प्रेरक का काम
करते हैं. पशुओं के खुरों तथा थनों के स्थान पर रक्षात्मक केराटिन के निर्माण हेतु भी
इसकी आवश्यकता पड़ती है जो इनके खुरों तथा अयन-त्वचा की संरचना को सामान्य बनाए
रखता है. ताम्बा तथा मेंग्नीज़ धातु-एंजाइम के भाग होने के कारण श्वसन, कार्बोज व
वसा चयापचय, ऑक्सीकरण के विपरीत क्रियाओं तथा कोलेजन के निर्माण में अपना सहयोग
प्रदान करते हैं. सेरुलोप्लाज्मिन नामक एंजाइम ताम्बे के साथ मिलकर लोहे की
उपलब्धता सुनिश्चित करता है. जिंक की ही भांति ताम्बा तथा मेंग्नीज़ केराटिन
निर्माण में सहायक हैं तथा सुपरऑक्साइड डिसम्यूटेज़ के ही
भाग हैं.
सिलीनियम भी
विभिन्न प्रकार के 25 सिलीनो-प्रोटीन का भाग है. इन प्रोटीनों में सल्फर के स्थान
पर सिलीनियम होता है जो प्रोटीनों की हाइड्रोजन प्रदान करने की क्षमता बढाता है
तथा अपचयन संबधी अभिक्रियाओं में सहायक होता है. आयोडो-थाइरोनीन डीआयोडीनेज़
सिलीनो-प्रोटीन युक्त एक ऐसा एंजाइम है जो चयापचय को नियमित रखता है. इसी प्रकार
ग्लूटाथाईऑन परऑक्सीडेज़ तथा थायोरीडोक्सीन रीडक्टेज़ भी एंटी-ऑक्सिडेंट तथा
रोग-प्रतिरोध तंत्र का एक मुख्य भाग हैं. पशुओं में जिंक, ताम्बा, मेंगनीज़ तथा
सिलीनियम युक्त प्रोटीन व एंजाइम वृद्धि, उत्पादन, जनन तथा स्वस्थ बनाए रखने में
सहायता करते हैं. इन आहार-घटकों में कमी होने पर अल्पता संबंधी विकार होने लगते
हैं तथा पशुओं की क्षमता भी कम होने लगती है. इसी कारण से पशुओं के आहार में
सूक्ष्म-मात्रिक खनिज मिलाए जाते हैं. यद्यपि अल्प-मात्रिक खनिज बहुत सी दैहिक
क्रियाओं के लिए अति आवश्यक हैं. अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक की रासायनिक संरचना
भिन्न होने के कारण ये पशु उत्पादन एवं अच्छे स्वास्थ्य हेतु उपलब्ध हैं. इनकी कमी
होने पर पशु-क्षमता में कमी आती है.
सामान्यतः जिंक, ताम्बा व
मेंगनीज़ संपूरक जिंक सल्फेट, क्यूपरिक सल्फेट अथवा मेंगनीज़ सल्फेट के रूप में
प्रयुक्त किए जाते हैं. इन लवणों में अल्प-मात्रिक खनिज शुष्क अवस्था में सल्फेट
से संबद्ध रहता है परन्तु रुमेन में जाकर यह विघटित हो जाता है. रुमेन में अल्प-मात्रिक
खनिज बहुत ही कम मात्रा में अवशोषित हो पाते हैं क्योंकि इनका अवशोषण छोटी आंत में
ही संभव होता है. विघटित रूप में अल्प-मात्रिक खनिज रुमेन में जाकर अघुलनशील यौगिक
बन जाते हैं जो पाचनशील न होने के कारण मल के द्वारा शरीर से निष्काषित हो जाते
हैं. ये खनिज पौधों में पाए जाने वाले
पोलीफीनोल व शर्करा से संबद्ध हो कर अपचनशील जटिल पदार्थों का निर्माण करते हैं
जिससे छोटी आंत में इनका अवशोषण कम होता है.
आजकल अकार्बनिक लवणों के
स्थान पर जिंक, ताम्बे व मेंगनीज़ के कार्बनिक अणु जो प्रोटीन अथवा अमीनो-एसिड के
रूप में होते हैं, का उपयोग किया जा रहा है. बाज़ार में कई प्रकार के कार्बनिक
अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक उपलब्ध हैं. रासायनिक सरंचना के आधार पर इन सब का वर्गीकरण
कॉम्प्लेक्स, चीलेट तथा प्रोटीनेट के रूप में किया जा सकता है. कॉम्प्लेक्स में
खनिज व कार्बनिक यौगिक के मध्य स्थायी अथवा को-वालेंट बन्ध होना अनिवार्य नहीं है
परन्तु चीलेट तथा प्रोटीनेट के मध्य ऐसा होना आवश्यक है जैसे जिंक मीथियोनिन व
जिंक प्रोटीनेट आदि. सेलेनाईट तथा सेलिनेट
से सोडियम लवण के रूप में अकार्बनिक सेलिनियम की प्राप्ति होती है जबकि इसका
कार्बनिक रूप सेलिनियम-ईस्ट होता है. यह सेलिनियम-मिथियोनिन के रूप में भी
प्रयुक्त होता है जिसमें सेलिनियम स्थाई बंध द्वारा अमीनो-अम्ल से जुडा रहता है जो
सल्फर का स्थान लेता है.
सूक्ष्म-मात्रिक खनिजों से
वांछित लाभ प्राप्त करने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इनका विघटन रुमेन
में न होने पाए. ‘कार्बनिक’ अल्प-मात्रिक खनिज रुमेन में विघटित न होने के कारण
छोटी आंत में अवशोषित होने के लिए अधिक मात्रा में उपलब्ध रहते हैं. एक उत्तम खनिज संपूरक को अम्लीय वातावरण से
अप्रभावित रहना चाहिए परन्तु वास्तव में ऐसा संभव नहीं है. पाचन तंत्र के बाहर किए
गए अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कार्बनिक खनिज, अकार्बनिक अल्प-मात्रिक खनिजों की
तुलना में कहीं अधिक मात्रा में अवशोषित होते हैं. इसके बावजूद कार्बनिक
अल्प-मात्रिक खनिजों को ऊपरी पाचन नली में कुछ न कुछ क्षति तो अवश्य पहुंचती है.
ज्ञातव्य है कि खनिजों का अधिक मात्रा में अवशोषण बेहतर उत्पादन क्षमता का द्योतक
है. विभिन्न प्रकार के अल्प-मात्रिक खनिजों की तुलना करना एक कठिन कार्य है. इनकी
तुलना पशु पोषण परीक्षणों तथा ऊत्तक संवर्धन विधियों द्वारा ही संभव है. पशुओं के
शरीर में अल्प-मात्रिक खनिजों के अवशोषण तथा उपलब्धता का मापन करना संभव नहीं है
तथा इसे जैव-उपलब्धता के सन्दर्भ में ही देखना ही उचित होगा. जैव-उपलब्धता का
अभिप्रायः पशुओं के शरीर में हुए खनिजों के अवशोषण से है. जिस खनिज की जैव-उपलब्धता अधिक होगी वह पशुओं
में बेहतर स्वास्थ्य एवं अधिक उत्पादन सुनिश्चित कर सकेगा. अधिक जैव-उपलब्धता
युक्त खनिज कम मात्रा में खिलाना पड़ता है जिससे खनिज संपूरक की बचत होती है.
जैव-उपलब्धता का सही मूल्यांकन करने के लिए पोषण आधारित परीक्षण किए जाते हैं
जिनमें पशुओं को विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अल्प-मात्रिक खनिज दिए जाते हैं. यह
मापन रक्त तथा लीवर में खनिज के सांद्रण पर निर्भर करता है. खिलाए गए तथा मल
द्वारा निष्काषित अल्प-मात्रिक खनिज मात्रा का अंतर अवशोषित किए गए खनिज की मात्रा
को दर्शाता है. इस प्रकार का परीक्षण वातावरणीय परिस्थितियों, पशुओं की
दुग्धावस्था एवं आहार घटकों के संयोजन पर भी निर्भर करता है. अक्सर देखा गया है कि
विभिन्न परिस्थितियों से प्राप्त परीक्षण रिपोर्ट के आधार पर परिणामों में
अत्याधिक भिन्नता पाई गई है जिनसे सटीक निष्कर्ष निकालना कठिन है. निष्कर्षतः कहा
जा सकता है कि रक्त में पाए जाने वाले खनिज की सांद्रता में विशेष अंतर न होने के
बावजूद कार्बनिक खनिज लेने वाले पशुओं में बेहतर दुग्ध उत्पादन एवं खुर स्वास्थ्य
देखने को मिला है. अकार्बनिक की अपेक्षा ‘कार्बनिक’ अल्प-मात्रिक खनिज शारीरिक
वृद्धि, दुग्ध उत्पादन बढाने तथा जनन सुधार हेतु अधिक सक्षम पाए गए हैं. जैव
उपलब्धता पर किए गए अनुसंधान से यह स्पष्ट है कि इसके मापन हेतु किए जा रहे
परीक्षण इतने संवेदनशील नहीं हैं कि इसका सटीक मूल्यांकन कर सकें.
कार्बनिक तथा अकार्बनिक
सेलिनियम का अवशोषण तथा चयापचय भिन्न होता है. पाचक ऊत्तकों द्वारा अकार्बनिक
सेलिनियम की पहचान हो जाती है तथा यह अवशोषित हो कर सेलिनो-प्रोटीन में परिवर्तित
हो जाता है. कार्बनिक सेलिनियम जो सेलिनियम-मिथियोनिन के रूप में होता है, को कोशिकाएं
सेलिनियम-वाहक के रूप में नहीं पहचान पाती. परिणाम-स्वरुप सेलिनियम-मिथियोनिन
अवशोषित हो जाती है. यदि सेलिनियम मिथियोनिन का अपघटन कोशिका में हो जाए तो कोशिका
इसे सेलिनियम के रूप में पहचान कर अवशोषित कर लेती है. परन्तु अपघटन न होने की
स्थिति में इसका उपयोग ऐसे प्रोटीनों में होता है जिन्हें सेलिनियम की आवश्यकता न
हो. ‘कार्बनिक’ सेलिनियम का पाचन अकार्बनिक सेलिनियम की तुलना में अधिक होता है.
सेलिनियम का अवशोषण ‘सेलेनाईट’ के रूप में होता है. जो सेलिनियम सेलिनेट के रूप
में होता है, वह भी रुमेन में सेलनाईट में परिवर्तित हो जाता है. लगभग एक तिहाई सेलेनाईट
अघुलनशील अवस्था में मल द्वारा निष्काषित हो जाता है. छोटी आंत तक पहुँचाने वाले
सेलनाईट का लगभग 40 % भाग ही अवशोषित हो पाता है. इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सेलेनाईट
की तुलना में सेलिनियम-ईस्ट की पाचाकता कहीं अधिक है. पशुओं को सेलिनियम-ईस्ट
खिलाने पर अकार्बनिक सेलिनियम की तुलना में दुग्ध सेलिनियम स्तर भी अधिक पाया गया.
हालांकि रक्त और दूध में बड़ी हुई सेलिनियम की सांद्रता किसी हद तक सेलिनियम युक्त
अमीनो-अम्ल के कारण भी हो सकती है.
तनाव अथवा संक्रमण काल के
दौरान अनुमानित आवश्यकता से अधिक मात्रा में अल्प-मात्रिक खनिज खिलाने पर डेयरी
पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार होता है. इसका मुख्य कारण इन अल्प-मात्रिक खनिजों का
एंटी-ऑक्सिडेंट तंत्र को दिया गया विशेष योगदान ही है. आक्सीकरण एक सामान्य प्रक्रिया
है जिसमें स्वतंत्र आयन बनते रहते हैं जो कोशिकाओं को नष्ट कर सकते हैं. एंटी-ऑक्सिडेंट
तंत्र इन स्वतंत्र आयनों को नष्ट कर देता
है. सुपर ऑक्साइड डिसम्यूटेज़ में अपनी उपस्थिति के कारण जिंक, ताम्बा तथा मेंगनीज़
इस तंत्र का अभिन्न अंग हैं. सुपर ऑक्साइड डिसम्यूटेज़, स्वतंत्र आयनों को हाइड्रोजन
पर-ऑक्साइड में परिवर्तित कर देता है जिसका बाद में पानी बन जाता है. ब्यांत,
संक्रमण तथा वातावरणीय उच्च तापमान से होने वाले तनाव के समय स्वतंत्र आयनों का
उत्पादन बढ़ जाता है जबकि अपेक्षाकृत कम संख्या में ही ये आयन नष्ट होते हैं. इन परिस्थितियों में कोशिकाओं में विद्यमान वसा,
कार्बोज तथा प्रोटीनों का अपघटन होने लगता है. अधिक दूध देने वाली गऊएँ इससे अधिक
प्रभावित होती हैं. यदि पशुओं को अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक खिलाया जाए तो स्वतंत्र
आयनों के कारण नष्ट होने वाली कोशिकाओं की संख्या को कम किया जा सकता है.
श्वेत रक्त कणिकाओं की झिल्ली
पर स्वतंत्र आयनों का प्रभाव अधिक पड़ता है जिससे इनकी रोग प्रतिरोध क्षमता कम हो
जाती है. इन कणिकाओं की झिल्ली में असंतृप्त वसीय अम्लों की मात्रा अधिक होती है
जो स्वतंत्र आयनों द्वारा शीग्रता से नष्ट हो जाते हैं. अनुसंधान अध्ययनों से
ज्ञात हुआ है कि पशुओं को अल्प-मात्रिक खनिज संपूरक देने से उनकी रोग-प्रतिरोध
क्षमता में सुधार होता है. रक्त में अधिक सेलिनियम सांद्रता वाले पशुओं में
अपेक्षाकृत कम संख्या में कायिक कोशिकाएं पाई जाती हैं. अतः पशुओं को आहार में सेलिनियम
देने से इनके दूध की गुणवत्ता भी बेहतर होती है.
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