स्वस्थ बछड़ियों से
सर्वोत्तम गाय तैयार करना
किसी भी डेयरी फार्म का मुख्य उद्देश्य हो सकता है. बछड़ियों का आहार प्रबंधन बहुत
कठिन कार्य है तथा इसके लिए सकल डेयरी बज़ट का लगभग 20% भाग खर्च हो जाता
है. बछड़ियों के शीघ्र यौवनावस्था में आने से इन्हें कृत्रिम गर्भाधान द्वारा
प्रजनित करवाया जा सकता है ताकि प्रथम
ब्यांत पर इनकी आयु अधिक न होने पाए. सम्पूर्ण शारीरिक विकास एवं भार वृद्धि हेतु बछड़ियों को
अधिक ऊर्जा एवं प्रोटीन-युक्त आहार खिलाने की आवश्यकता होती है. यौवनावस्था से
पहले दैहिक भार में औसत वृद्धि अधिक होने के कारण दुग्ध-ग्रंथियों का विकास धीमी
गति से होने लगता है जो भविष्य में प्रथम दुग्ध-काल की उत्पादन क्षमता को कम कर
देता है. यदि प्रथम ब्यांत पर पशु की आयु दो वर्ष से अधिक न हो तो दुग्ध-काल पर इस
हानि का प्रभाव कम हो सकता है. अगर बछड़ियों में जन्म से लेकर प्रथम ब्यांत की आयु
तक उपयुक्त अनुमान व मूल्यांकन द्वारा आहार प्रबंधन किया जाए तो हमें आदर्श डेयरी
हेतु एक बेहतर गाय प्राप्त हो सकती हैं.
दुग्ध-उत्पादन
क्षमता बढ़ाने के लिए प्रथम ब्यांत पर होल्सटीन गाय की औसत आयु दो वर्ष या इससे कम
तथा दैहिक भार 350-500 किलोग्राम तक हो सकता है बशर्ते इन्हें अधिक दाना या
सान्द्र के साथ पौष्टिक चारा खिलाया जाए. संकर गायों में
प्रथम ब्यांत पर दैहिक भार 300 किलोग्राम के लगभग हो सकता है. यौवनावस्था के बाद अधिक
ऊर्जायुक्त आहार खिलाने से दुग्ध-ग्रंथियों के विकास में तेज़ी आती है तथा प्रथम
ब्यांत के बाद मिलने वाले दूध की मात्रा भी बढ़ जाती है. अतः जन्म से यौवनावस्था तक
होने वाले दैहिक एवं दुग्ध-ग्रंथियों के विकास एवं दुग्ध-उत्पादन क्षमता पर पोषण
का प्रभाव सर्वाधिक होता है. दुग्ध-ग्रंथियों के विकास से ही दुग्ध-काल की सीमा
तथा दुग्ध-उत्पादन क्षमता निर्धारित होती है. पशुओं में दुग्ध-ग्रंथियां
भ्रूणावस्था से ही विकसित होने लगती हैं तथा जन्म के समय ही इनका बाह्य-विकास हो
जाता है. इस अवस्था में दुग्ध-नलिकाएं एवं चर्बी तीव्रता से बढ़ती हैं जबकि
कृपिकाओं का निर्माण नहीं होता. जन्म से तीन माह तक तथा एक वर्ष से गर्भावस्था के
तीन माह तक दूध-ग्रंथियों का विकास दैहिक विकास दर के समान होता है परन्तु इसके
बाद दुग्ध-ग्रंथियों का विकास तीव्र हो जाता है. होल्सटीन बछड़ियों में सबसे तेज़
दुग्ध-ग्रंथियों का विकास 3-9 महीने की आयु में होता है जबकि इनका दैहिक भार 100-200 किलोग्राम के बीच होता है. यदि इस समय इन्हें पर्याप्त पोषण न मिले तो इनकी
दुग्ध-ग्रंथियां अर्धविकसित रह सकती हैं क्योंकि ग्रहण की गई ऊर्जा का अधिकतम भाग
दैहिक विकास हेतु ही उपयोग हो जाता है.
गायों का
दुग्ध-उत्पादन दुग्ध-कोशिकाओं की संख्या एवं इनकी स्रवण क्षमता पर निर्भर करता है.
द्वितीय दुग्धकाल की तुलना में प्रथम दुग्धकाल के अंतर्गत दुग्ध-ग्रंथियों की उपचय
स्थिति भिन्न होती है क्योंकि पशुओं द्वारा आहार के पोषक तत्त्व दुग्धावस्था एवं
निरंतर दैहिक विकास हेतु उपयोग में लाए जाते हैं. बछड़ियों को उनकी इच्छानुसार जन्म
से 50 दिन तक गाय का दूध पिलाने से दैहिक विकास तीव्रता से होता
है तथा वे शीघ्रता से न केवल यौवनावस्था प्राप्त करती हैं बल्कि प्रथम दुग्धकाल
में दूध भी अधिक देती हैं. बछड़ियों को दूध की बजाय 35o सेंटीग्रेड तापमान का कृत्रिम दुग्ध-संपूरक देने से भी
दैहिक विकास तेज़ी से होता है तथा वे जल्दी यौवनावस्था में आ जाती हैं. बछड़ियों को
बाल्टी से सीधे दूध पिलाने की बजाय कृत्रिम निप्पल द्वारा दूध पिलाना अधिक लाभदायक
होता है. गाय का स्तन-पान करने वाली बछड़ियों में जन्म के बाद दैहिक भार में अधिक
वृद्धि देखी गई है. दुग्ध-संपूरक में ऊर्जा एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने से
बछड़ियों की दैहिक विकास दर में वृद्धि लाई जा सकती है. बछड़ियों के जन्म के 2-8 सप्ताह के बीच होने
वाले तीव्र दैहिक विकास का दुग्ध-ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव देखा गया है. इस
समय आहार में ऊर्जा एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने से दुग्ध-कोशिकाओं का विकास
दोगुनी गति से होता है.
पशुओं में
यौवनावस्था का आगमन आयु की अपेक्षा इनके शारीरिक भार पर अधिक निर्भर करता है.
होल्सटीन जैसी बड़ी नस्ल की बछड़ियाँ अक्सर 9-11 माह की आयु में
यौवनावस्था प्राप्त करती हैं जब इनका भार 250-280 किलोग्राम के लगभग
होता है. गायों की दुग्ध-उत्पादन क्षमता इनके जन्म एवं यौवनावस्था के बीच मिलने
वाले पोषण पर निर्भर करती है, परन्तु यौवनावस्था से पूर्व अत्याधिक पोषण के कारण
शरीर में चर्बी का जमाव बढ़ने से दुग्ध-कोशिकाओं का विकास धीमा हो सकता है. अतः बछड़ियों
के शारीरिक भार में वृद्धि 800 ग्राम प्रतिदिन से अधिक नहीं होनी चाहिए. ऐसा लगता है कि
बछड़ियों को अधिक ऊर्जा-युक्त आहार देने से यौवनावस्था तो शीघ्र आ जाती है परन्तु
दुग्ध-ग्रंथियों का विकास दैहिक विकास की तुलना में कम होता है. यह स्थिति
दुग्ध-कोशिकाओं की संख्या एवं डी.एन.ए. की मात्रा में कमी के कारण उत्पन्न होती
है. अतः इन परिस्थितियों में बछड़ियों को
संतुलित आहार दिए जाने की अधिक आवश्यकता है ताकि प्रसवोपरांत इनकी दुग्ध-उत्पादन
क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. बछड़ियों में अधिक प्रोटीन-युक्त आहार देने
से शारीरिक विकास तीव्रता से होता है तथा मोटापे की समस्या भी नहीं होती. इस
प्रकार पशुओं के आगामी दुग्ध-काल एवं दुग्ध-उत्पादन पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव
को रोका जा सकता है.
बछड़ियाँ आगामी
दुग्ध-काल कों प्रभावित किए बिना 800 ग्राम प्रतिदिन की दर से 100-300 किलोग्राम तक शारीरिक भार प्राप्त कर सकती हैं. इसके लिए इन्हें 90-110 % तक सकल पाचक तत्वों एवं रुक्ष प्रोटीन की आवश्यकता होती है. पोषण में अधिक
सान्द्र अथवा दाना देने से प्रथम दुग्ध-काल में दूध में वसा एवं इसकी मात्रा बढ़ाई
जा सकती है परन्तु पशुओं को उनकी इच्छानुसार अधिक दाना देने से भी दूध का उत्पादन
कम हो जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि दूध पैदावार हेतु बेहतर आनुवंशिक गुणों वाली
बछड़ियों में मोटापा नियंत्रित करने की क्षमता भी अधिक पाई जाती है. यौवनावस्था के
बाद तथा गर्भावस्था में उच्च-पोषण स्तर के कारण होने वाले अधिक दैहिक विकास दर का
दुग्ध-ग्रंथियों एवं दूध के उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु पोषण गुणवत्ता
के कारण प्रथम बार ब्याने वाली गायों में दुग्ध-ग्रंथियों के विकास एवं वृद्धि
अवश्य प्रभावित होती है. प्रथम ब्यांत पर बेहतर दैहिक भार वाली गायों की
दुग्ध-उत्पादन क्षमता भी अधिक होती है. यौवनावस्था के दौरान दिए गए उच्च-पोषण का
प्रथम दुग्ध-काल के दूध उत्पादन पर तो कोई प्रभाव नहीं होता परन्तु इससे सम्पूर्ण
दुग्ध-काल में हुई दैहिक भार-वृद्धि कम हो जाती है तथा गाय देरी से मद्काल
प्रदर्शित करती है. यदि देखा जाए तो प्रथम दुग्ध-काल में अधिक दूध प्राप्त करने
हेतु ब्यांत के समय गाय का दैहिक भार एवं यौवनावस्था के बाद उच्च-वृद्धि दर दोनों
ही आवश्यक हैं.
ग्याभिन बछड़ियों को
आमतौर पर कम ऊर्जा एवं अधिक रेशे वाले आहार खिलाए जाते हैं ताकि इनकी
ऊर्जा-ग्राह्यता को नियंत्रित किया जा सके. प्रसवोपरांत दुग्ध-उत्पादन क्षमता को
बनाए रखने हेतु ऐसा करना आवश्यक भी है. गर्भावस्था के 2-6 माह तक पोषण
गुणवत्ता का प्रथम ब्यांत के बाद दुग्ध-उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु
गर्भावस्था के अंतिम तीन माह में बेहतर आहार खिलाने से दूध अधिक मिलता है. पशुओं
में दुग्ध-उत्पादन हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध करवाने के लिए उपयुक्त पोषण नीति आवश्यक
है ताकि जनन क्षमता को अधिक बेहतर बनाया जा सके. बढ़ती हुई बछड़ियों को दैहिक
रख-रखाव, विकास तथा गर्भावस्था हेतु प्रोटीन-युक्त आहार की आवश्यकता होती है.
अनुसंधान द्वारा ज्ञात हुआ है कि 5-10 माह की बछड़ियों को अपेक्षाकृत कम मात्रा में रुक्ष प्रोटीन
खिलाने से दुग्ध-ग्रंथियों का विकास अधिक हुआ. अतः 90-220 किलोग्राम दैहिक भार वाली बछड़ियों को 16% तथा 220-360 किलोग्राम भार वाली बछड़ियों को 14.5% रुक्ष प्रोटीन देने की सिफारिश की जाती है जबकि 360 किलोग्राम से अधिक
भार होने पर उन्हें 13% रुक्ष प्रोटीन दिया जा सकता है. आहार नियंत्रण एक ऎसी
प्रबंधन विधि है जिसमें सीमित आहार खिला कर पशुओं की पोषण-ग्राह्यता एवं दक्षता को
बेहतर बनाया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि यह विधि अधिक रेशा-युक्त आहार खिलाए जाने
की तरह ही प्रभावशाली हो सकती है तथा इसका दुग्ध-उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव नहीं
पड़ता. वैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि प्रथम ब्यांत की होल्सटीन गायों को
प्रसव पूर्व कम ऊर्जायुक्त आहार देने पर दुग्ध-काल के पहले 8 महीनों तक कोई
प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया.
निष्कर्षतः संतुलित
पशु पोषण दैहिक विकास एवं भार में वृद्धि के साथ-साथ दूध कोशिकाओं में वृद्धि एवं
अधिक दुग्ध-उत्पादन हेतु अत्यंत आवश्यक है. आनुवंशिक चयन के कारण पशुओं में
शारीरिक वृद्धि दर भी बढ़ती है जिससे इनकी रुक्ष प्रोटीन आवश्यकता अधिक हो जाती है.
अतः तेज़ी से बढ़ने वाली बछड़ियों में रुक्ष प्रोटीन व ऊर्जा के मध्य अनुपात अधिक
होना चाहिए.
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