रेशे
पौधों की कोशिका भित्ति से प्राप्त होते हैं जिनमें कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट एक
मुख्य घटक होता है. ये रेशे सेल्लुलोज़, हेमी-सेल्लुलोज़ तथा लिग्निन से निर्मित
होते हैं. सेल्लुलोज़ में ग्लूकोज के अणु बीटा 1-4 बंध द्वारा जुड़े होते हैं जबकि
हेमी-सेल्लुलोज़ में ‘जाइलोज’ शक्कर के अणु बीटा 1-4 बंध द्वारा जुड़े होते हैं. हेमी-सेल्लुलोज़ का सम्बन्ध लिग्निन से होता है
जो रेशों को आसानी से पचने नहीं देती. पौधों का आकार बढ़ने से इनकी कोशिका भित्ति में लिग्निन की मात्रा भी अधिक होने
लगती है जिससे आहार की पचनीयता में कमी आती है. अपरिपक्व अथवा कच्ची चारा-फसलों
में पकी हुई फसलों की तुलना में पाचक रेशे अधिक होते हैं. हमें चारा फसलों को फूल
लगने के आरम्भ में ही काट लेना चाहिए ताकि इनमें लिग्निन कम तथा आसानी से पचने
योग्य रेशे अधिक हों. ध्यातव्य है कि अगर चारा फसलों को इससे पहले काट दिया जाए तो
आहार की पचनीयता अवश्य ही बढ़ सकती है परन्तु इसमें शुष्क पदार्थ की मात्रा बहुत कम
होती है. अतः चारा फसलों को काटते समय इनके उत्पादन तथा पाचकता में संतुलन बनाने की
आवश्यकता होती है. चारा फसलों में रेशों की मात्रा इनकी भौगोलिक स्थिति
पर भी निर्भर करती है. जो चारा फसलें गर्म व शुष्क स्थानों पर उगाई जाती हैं,
उनमें लिग्निन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है.
रोमंथी पशुओं में रेशायुक्त आहार का पाचन छोटी आंत में
पहुँचने से पहले ही किण्वन द्वारा हो जाता है. पशुओं को रेशों के पाचन के बाद
सूक्ष्मजीवी प्रोटीन भी उपलब्ध होता है जो अमीनो-अम्लों के रूप में अवशोषित कर
लिया जाता है. रुमेन में कई प्रकार के
सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया तथा प्रोटोजोआ होते हैं. ‘एमाइलो-लाइटिक’ बैक्टीरिया स्टार्च का किण्वन
करने में सहायक होते हैं जबकि ‘फाइब्रो-लाइटिक’ बैक्टीरिया रेशों का किण्वन आसानी से कर सकते हैं. विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया की संख्या आहार की प्रकृति पर निर्भर करती है.
रेशों के किण्वन से एसिटिक एसिड बनता है जिससे गाय को ऊर्जा के साथ-साथ दूध में
वसा की मात्रा बढ़ाने वाला प्रारंभिक उत्पाद प्राप्त होता है. शक्कर एवं स्टार्च के
किण्वन से प्रोपियोनिक एसिड का निर्माण होता है. इसे लीवर द्वारा ग्लूकोज संश्लेषण हेतु उपयोग
में लाया जाता है जिससे गाय को ऊर्जा मिलती है. पशु आहार में रेशीय अथवा गैर-रेशीय दोनों ही
प्रकार का कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट हो सकता है.
रेशे पशुओं के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं
क्योंकि इनके कारण रुमेन एवं अन्य शारीरिक क्रियाएँ सामान्य बनी रहती हैं. सामान्यतः
पशुओं को चारे में रेशा-युक्त आहार खिलाया जाता है ताकि इनमें जुगाली की प्रक्रिया
अधिक प्रभावी हो सके. जुगाली करने से आहार में अधिक लार मिलती है, इससे रुमेन की
पी.एच व एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ बेहतर होता है जो दूध में वसा की मात्रा
बढ़ाने में सहायक है. जो गाय अधिक मात्रा में प्रभावी
रेशों वाला आहार खाती हैं, वह हर रोज छः घंटे जुगाली करके लगभग 50 गैलन तक लार
स्त्रावित कर सकती हैं. अधिक लार बनने से रुमेन की पी.एच. अथवा अम्लता नियंत्रित
रहती है. जुगाली के बाद आहार धीरे-धीरे ही रुमेन से बाहर निकलना चाहिए अन्यथा
किण्वन अधूरा रहने से इसका पाचन अच्छी तरह नहीं हो पाएगा.
यदि रेशे अधिक मोटे व लंबे होंगे तो जुगाली करने पर तरल रुमेन
द्रव्य पर तैरने लगते हैं जबकि इसके बारीक कण नीचे बैठ जाते हैं. रुमेन के इस द्वि-स्तरीय
आतंरिक पर्यावरण से ही पशु की सभी चयापचय क्रियाएँ निर्धारित होती हैं जो दूध की
गुणवत्ता को भी प्रभावित करती है. इस प्रकार रोमंथी पशुओं के पोषण में रेशों का
बहुत अधिक महत्व होता है. घुलनशील रेशों के अधिकतर घटक जैसे पेक्टिन, फ्रक्टन तथा
बीटा-ग्लुकन रुमेन में आसानी से किण्वित हो जाते हैं परन्तु कुछ रेशे अपेक्षाकृत
अघुलनशील होने के कारण पाचन-नली में अधिक स्थान घेरते हैं तथा इनकी पाचकता बेहतर
किण्वन पर निर्भर होती है. आहारीय रेशे अम्ल-उदासीन अथवा अम्लीय प्रकृति जैसे सेल्लुलोज़
व लिग्निन के हो सकते हैं. न्यूट्रल
या उदासीन डिटर्जेंट रेशे आहार के सेल्लुलोज़, हेमी-सेल्लुलोज़ तथा लिग्निन घटकों
के अनुरूप होते हैं. अतः न्यूट्रल डिटर्जेंट फाइबर (एन.डी.एफ.) एसिड डिटर्जेंट
फाइबर (ए.डी.एफ.) की तुलना में आहार के अधिक फैलाव एवं बेहतर जुगाली प्रक्रिया को सुनिश्चित
करता है.
ज्ञातव्य है कि प्रभावी एन.डी.एफ. तथा भौतिक दृष्टि से
प्रभावी एन.डी.एफ. में अंतर होता है.
भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. रेशों के भौतिकीय गुणों जैसे आकार आदि
पर निर्भर करता है जबकि प्रभावी एन.डी.एफ.
आहार द्वारा चारे का प्रतिस्थापन करने की क्षमता पर निर्भर करता है. भौतिक दृष्टि
से प्रभावी एन.डी.एफ., एन.डी.एफ. से सदा कम होता है जबकि प्रभावी एन.डी.एफ. आहार
के एन.डी.एफ. से कम अथवा अधिक भी हो सकता है. प्रभावी एन.डी.एफ. डेयरी गायों में
जुगाली प्रक्रिया को बढ़ाता है तथा रुमेन वातावरण को सामान्य रखने के साथ-साथ दूध
में वसा को कम नहीं होने देता. आहार में रेशे अधिक होने पर पशु अधिक जुगाली करते
हैं. कम रेशे खिलाने से पशु सीमित मात्रा में जुगाली करता है तथा बहुत कम लार
स्त्रावित होती है जिससे रुमेन की पी.एच. कम अथवा अम्लीय हो जाती है. अम्लता किण्वन
को भी प्रभावित करती है जिससे एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ में गिरावट आती है तथा
दूध में वसा की मात्रा कम होने लगती है.
लार की मात्रा एवं इसके स्त्रावित होने की दर
जुगाली द्वारा ही निर्धारित हो सकती है. जुगाली प्रक्रिया चारे में रेशे की
मात्रा, चारा ग्राह्यता तथा चारे व दाने के अनुपात पर निर्भर होती है. सामान्यतः आहारीय
रेशे लगभग एक से.मी. से अधिक लंबे होते हैं जो जुगाली एवं लार स्त्रावण को बढ़ावा
देते हैं. अधिक लार के कारण रुमेन किण्वन द्वारा उत्पन्न अम्ल उदासीन होने लगते
हैं. जो रेशे जुगाली प्रक्रिया बढ़ाने में सहायक हों उन्हें भौतिक दृष्टि से अधिक ‘प्रभावी’
माना जा सकता है. आहार कणों का आकार पशुओं की ऐच्छिक ग्राह्यता, आहार नली में इसकी
गति तथा किण्वन को प्रभावित करता है. आहार कणों का आकार छोटा होने पर जुगाली
प्रक्रिया में कमी आती है. जब जुगाली करने से आहार कणों का आकार एक से.मी. से कम
होता है तो ये रुमेन से बाहर निकलने लगते हैं. यदि चारे के कणों का आकार बड़ा हो तो
ये रुमेन को खाली नहीं कर पाते, जिससे पशु की भूख भी कम हो जाती है. अतः पशुओं
द्वारा जुगाली करना एक स्वस्थ रुमेन का द्योतक है. बड़े आकार के आहार कण होने से भौतिक दृष्टि से
प्रभावी एन.डी.एफ. की ग्राह्यता तो बढ़ जाती है परन्तु शुष्क पदार्थ व एन.डी.एफ.
ग्राह्यता अप्रभावित रहती है.
रुमेन पी.एच. सूक्ष्म-जीवों की संख्या तथा
वाष्पीय वसा-अम्लों के उत्पादन को प्रभावित कर सकती है. रेशों को पचाने वाले
बैक्टीरिया 6.2-6.8 की पी.एच. पर सक्रिय होते हैं जबकि सेल्लुलोज़ पचाने वाले एवं
मीथेन उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया 6.0 की पी.एच. पर कम होने लगते हैं. स्टार्च
पचाने वाले बैक्टीरिया 5.2-6.0 के बीच की पी.एच. पसंद करते हैं. कुछ प्रोटोजोआ 5.5
की पी.एच. से नीचे जीवित नहीं रह सकते. पशुओं को यथासम्भव ऐसा आहार दिया जाना
चाहिए जिससे रुमेन-द्रव्य की पी.एच. 5.8-6.4 के बीच में ही बनी रहे. अतः पी.एच. को
बेहतर रुमेन स्वास्थ्य का परिचायक भी माना जा सकता है. आहार में गैर-रेशीय कार्बोज
खिलाने से कार्बनिक अम्लों का उत्पादन बढ़ता है जबकि भौतिक दृष्टि से प्रभावी
एन.डी.एफ. रेशे खिलाने से लार का प्रवाह बढ़ता है जो रुमेन के अम्लों को उदासीन कर
देता है. अतः पशुओं को चारा व दाना अलग-अलग खिलाने की बजाय मिला कर सम्पूर्ण
मिश्रित आहार के रूप में ही देना चाहिए. अधिक मात्रा में दाना तथा कम मात्रा में
भौतिक दृष्टि से प्रभावी एन.डी.एफ. रेशे से युक्त चारा खिलाने पर रुमेन में
वाष्पीकृत वसीय अम्ल अधिक हो जाते हैं जिससे पी.एच का स्तर गिर जाता है. यदि रुमेन
की पी.एच अधिक लंबे समय तक अम्लीय बनी रहे तो यह पशु के स्वास्थ्य के लिए भी
हानिकारक हो सकता है. आहारीय रेशों के किण्वन से लघु श्रंखला वाले वसीय अम्ल जैसे
एसीटेट, प्रोपियोनेट, ब्यूटाइरेट, लैक्टेट व सक्सीनेट उत्पन्न होते हैं. इसके
अतिरिक्त जल, कार्बनडाईऑक्साइड, मीथेन व हाइड्रोजन गैस का उत्पादन भी होता है.
रेशों के किण्वन से एसीटेट तथा गैर-रेशीय कार्बोज के किण्वन से अधिक मात्रा में
प्रोपियोनेट उत्पन्न होता है. यदि एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ 2.0 से कम हो जाए
तो गाय के दूध में वसा कम होने लगता है. एसीटेट:प्रोपियोनेट ‘अनुपात’ अधिक होने से
दूध में वसा की मात्रा बढ़ने लगती है क्योंकि एसीटेट से ही दुग्ध वसा का संश्लेषण
होता है. अतः रुमेन में सामान्य किण्वन सुनिश्चित करने हेतु आहार के भौतिक गुणों
का बहुत अधिक महत्व है. चारे में रेशों की लम्बाई व दाने के कणों का आकार बड़ा होना
चाहिए ताकि दूध में वसा की मात्रा अप्रभावित रहे. जब पशुओं को अधिक ऊर्जायुक्त आहार
की आवश्यकता होती है तो रेशों के भौतिक गुण शुष्क पदार्थ ग्राह्यता को भी प्रभावित
कर सकते हैं. अधिक दूध देने वाली गायों के पोषण में उच्च-ऊर्जा घनत्व के कारण
रेशों की मात्रा कम होने लगती है. रेशों की कमी से ‘रुमेन एसिडोसिस’ अथवा अम्लता
हो सकती है. ऎसी परिस्थितियों में गाय जुगाली कम करने के साथ-साथ लंगड़ा कर चलती
है. इसका गोबर पतला हो जाता है तथा इसके दूध में वसा की मात्रा भी कम हो जाती है.
यदि आवश्यक हो तो सोडियम बाइ-कार्बोनेट द्वारा भी रुमेन की अम्लता को नियंत्रित
किया जा सकता है. अगर इन गायों को पूर्ण मिश्रित आहार दिया जाए तो रुमेन की पी.एच.
6.0 से अधिक हो जाती है तथा दूध में वसा की मात्रा सामान्य होने लगती है.
बढ़ती हुई बछड़ियों को आवश्यकतानुसार रेशा-युक्त
आहार खिलाना चाहिए क्योंकि यह सस्ता होने के साथ-साथ स्वास्थ्यवर्धक भी है. दुधारू
गायों के लिए तो रेशे वाली खुराक अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इनकी प्रतिदिन शुष्क
पदार्थ ग्राह्यता 25 किलोग्राम या इससे अधिक हो सकती है. राष्ट्रीय अनुसंधान
परिषद् के अनुसार दुधारू पशुओं के आहार के शुष्क पदार्थ का 25 % एन.डी.एफ. होना
चाहिए. परन्तु इस सिफारिश के अंतर्गत रेशों के आकार या प्रकार का कोई ब्यौरा नहीं
दिया गया है. ज्ञातव्य है कि कुछ ऐसे आहारीय रेशे भी हैं जिनका आकार बहुत छोटा है
तथा इन्हें चबाने की आवश्यकता नहीं पड़ती जिससे लार का स्त्रावण कम होता है. अतः यह
आवश्यक है कि पशु को इस एन.डी.एफ. का लगभग 75% भाग परम्परागत चारे से प्राप्त होना
चाहिए. चारे से प्राप्त होने वाला एन.डी.एफ. पशु के शारीरिक भार का लगभग 1.2 %
होता है. इसका अर्थ यह भी नहीं है कि केवल बड़े आकार के
रेशे ही पशु की आवश्यकता-पूर्ति करने में सक्षम हैं.
प्रभावी रेशे वे होते हैं जो पशु को अधिक चबाने, जुगाली करने और लार स्त्रावित
करने के लिए प्रेरित करते हैं. ज्यों-ज्यों गाय का उत्पादन बढ़ता है त्यों-त्यों
इसे चारे की तुलना में अधिक दाने की आवश्यकता पड़ती है. यदि आहार में प्रभावी रेशे
की मात्रा कम हो तो आप संपूरक द्वारा इसकी पूर्ति भी कर सकते हैं. सर्वप्रथम आहार
में ए.डी.एफ. तथा एन.डी.एफ. का मूल्यांकन करें. अब आहार में चारे के अतिरिक्त
रेशों का मूल्यांकन करके यह देखें कि यह कुल एन.डी.एफ का कितने प्रतिशत है? यदि यह
संतुलित नहीं है तो चारा:दाना ‘अनुपात’ में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता
है. उदाहरण के लिए सोयाबीन के छिलके में रेशे की मात्रा तो अधिक है परन्तु इसमें
प्रभावी रेशे इतने कम हैं कि इसे चारे के स्थान पर प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता.
बिनौलों में प्रभावी रेशों की मात्रा बहुत अच्छी है जो कुल एन.डी.एफ. का 85 % तक
है, अतः इसे चारे के प्रतिस्थापन हेतु उपयोग किया जा सकता है. चारे एवं दाने में
उपयुक्त मात्रा में रेशे होने से न केवल गाय का रुमेन स्वस्थ रहता है अपितु इससे
डेयरी किसानों को बेहतर दुग्ध-उत्पादन भी प्राप्त होता है.
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