अधिकतर
डेयरी किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए खेतों में चारा फसलें उगाते हैं परन्तु
मौसमी परिवर्तनों के कारण सारा साल हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाती.
ऐसे में किसान अपने पशुओं को गेहूं का भूसा एवं विभिन्न फसलों के सूखे अवशेष खिला
कर ही काम चलाते हैं. इस प्रकार पशुओं को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्वों की
आपूर्ति नहीं हो पाती तथा इनकी उत्पादकता कम होने लगती है. सम्पूर्ण वर्ष पौष्टिक
चारे की उपलब्धता बनाए रखने हेतु या तो चारे को सुखा कर ‘हे’ बनाई जा सकती है अथवा
गीली अवस्था में ही ‘साइलेज’ के रूप में भंडारित कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि
‘भूसा’ पकी हुई फसल के अवशेष से प्राप्त होता है जबकि ‘हे’ में चारे को दीर्घावधि
संग्रहण हेतु सुखाया जाता है जिसमें पोषक तत्त्वों के नष्ट होने की संभावना अधिक
होती है. परन्तु ‘साइलेज’ तैयार करने से चारे के सभी पोषक तत्त्व नष्ट नहीं होते.
‘हे’ बनाने के लिए विशेष प्रकार की मशीनरी की आवश्यकता पड़ती है जबकि ‘साइलेज’
तैयार करना कहीं आसान व सस्ता विकल्प है. ‘हे’ बनाने के लिए मोटे तने वाली फसलें
जैसे मक्का आदि को पूर्ण रूप से सुखाने में काफी समय भी लगता है. ऐसे में ‘साइलेज’
द्वारा चारे के पोषक तत्त्वों को लंबे समय तक संग्रहीत करना कहीं अधिक सरल है.
साइलेज बनाने की विधि छोटे एवं मझोले किसान आसानी से ‘अपना’ सकते हैं तथा हरे चारे
की उपलब्धता न होने पर भी सारा साल अपने पशुओं को चारा आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते
हैं.
साइलेज
क्या है?
‘साइलेज’
अचार की तरह एक ऐसा उत्पाद है जिसमें हरे चारे को दीर्घावधि तक संभाल कर रख सकते
हैं. डेयरी किसानों के लिए साइलेज बनाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इससे शुष्क मौसम
के दौरान भी चारे की उपलब्धता बनी रहती है. चारे की फसल को काटने का समय बहुत
महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि पौधे के अधिक परिपक्व होने पर इसके पोषक तत्त्व कम
होने लगते हैं. चारे को काट कर ऑक्सीजन रहित वातावरण में किण्वन हेतु भंडारित किया
जाता है ताकि इसमें मौजूद सूक्ष्म जीवाणु लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करके पोषक तत्त्वों
को दीर्घावधि तक संरक्षित कर सकें. चारे का परिरक्षण अम्लीय वातावरण में होना
चाहिए. क्षारीय वातावरण में तैयार की गई साइलेज का स्वाद अच्छा नहीं होता तथा
इसमें शर्करा एवं प्रोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है.
साइलेज
कैसे बनती है?
खेत
से चारा काटने के बाद भी इसके पत्तों में श्वास क्रिया चलती रहती है. पौधों की
कोशिकाएं वायुमंडल से ऑक्सीजन गैस लेकर शर्करा को कार्बनडाईऑक्साइड, उष्मा एवं जल
में अपघटित कर देती हैं. परन्तु जब ये पौधे ‘साइलो-पिट्स’ या गड्ढों में दबे होते
हैं तो इन्हें ऑक्सीजन नहीं मिलती तथा ये वायु की अनुपस्थिति में ही किण्वन करने
लगते हैं जिससे लैक्टिक अम्ल बनता है जो ‘साइलो-पिट’ में अम्लीय वातावरण उत्पन्न
करके चारे को लंबे समय तक संरक्षित करने में सहायक होता है.
किण्वन
कैसे होता है?
‘साइलेज’
तैयार करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सूक्ष्म जीवाणुओं की ही है. ये जीवाणु
केवल ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ही पनप सकते हैं. यदि चारे में ऑक्सीजन रह गई तो
कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु भी पनपने लगते हैं जो इसे नष्ट कर सकते हैं. ऑक्सीजन की
उपस्थिति में पादप एन्जाइम एवं अन्य जीवाणु चारे के पोषक तत्त्वों को नष्ट कर देते
हैं. जैसे ही साइलेज के गड्ढे में ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है वैसे ही लैक्टिक
एसिड पैदा करने वाले जीवाणुओं की संख्या भी बढ़ने लगती है. अम्लता बढ़ने से शर्करा
का अपघटन थम जाता है तथा घास दीर्घावधि तक भंडारण हेतु सुरक्षित हो जाती है.
इस
प्रकार तैयार ‘साइलेज’ लगभग 5 वर्ष तक खराब नहीं होती तथा इससे पशुओं को बहुत लाभ
हैं. पर्याप्त जानकारी के अभाव एवं अशिक्षा के कारण हमारे किसानों द्वारा इसका
उपयोग अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया है. हालांकि ‘हे’ बनाने पर सकल शुष्क पदार्थ के
लगभग 30% पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं जबकि ‘साइलेज’ बनाने में केवल 10% पोषक
तत्त्व ही व्यर्थ होते हैं. ‘साइलेज’ बनाने से खेत में सालाना 2-3 फसलें उगाना भी सम्भव
है. साइलेज बनाते समय किण्वन के कारण पौधों द्वारा मिट्टी व खाद से अवशोषित ‘नाइट्रेट’
के स्तर भी कम हो जाते हैं. इसके भंडारण हेतु बहुत कम स्थान की आवश्यकता पड़ती है.
मक्की के बीजों एवं भूसे की तुलना में इसके चारे से ‘साइलेज’ बनाने पर 30-50% तक
अधिक पोषण प्राप्त होता है. अधिक नमी के कारण दो किलोग्राम ‘साइलेज’ की पोषण
क्षमता लगभग एक किलोग्राम ‘हे’ के बराबर आंकी गई है. जिस स्थान पर ‘साइलेज’ तैयार
होती है, उसके आस-पास ही इसे उपयोग में लाना लाभकारी होता है. इसे लम्बी दूरी तक
ढोना सम्भव नहीं है क्योंकि लैक्टिक अम्ल के साथ बहुत से पोषक तत्त्व बाहर आ कर
व्यर्थ हो सकते हैं. यह चारे की तुलना में भारी होती है, अतः पशुओं को परोसने में कुछ
अधिक मेहनत करनी पड़ती है.
साइलेज
हेतु साइलो-पिट्स कहाँ बनाएँ?
साइलेज
हेतु पिट्स बनाने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करना आवश्यक है. इसके लिए ऎसे स्थान
का चयन करना चाहिए जो पशुओं के आवास के निकट हो ताकि ‘साइलेज’ परोसने हेतु अधिक
दूरी न तय करनी पड़े. ‘साइलो-पिट्स’ के स्थान पर जल-भराव की स्थिति नहीं होनी
चाहिए. वर्षा के मौसम में पानी का बहाव इससे यथासम्भव दूरी पर होना चाहिए. ‘साइलो-पिट्स’
पर सूरज की किरणें सीधे नहीं पड़नी चाहिएं क्योंकि तापमान अधिक होने पर भी साइलेज
खराब हो सकती है.
साइलेज
हेतु चारा फसलें
किसी
भी फसल को काटने का उपयुक्त समय इसके पकने से कुछ दिन पूर्व का होता है क्योंकि इस
स्थिति में पोषक तत्त्वों की मात्रा अधिकतम स्तर पर होती है. परिरक्षण के दौरान
कुछ पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, इसलिए साइलेज हेतु प्रयुक्त चारे में पोषक
तत्त्वों की मात्रा अधिकतम होनी चाहिए. चारे को कुछ समय के लिए खुली हवा में
फैलाया जाता है ताकि इसमें नमी की मात्रा 60-75% के बीच सीमित हो जाए. इतनी नमी पर
उपयुक्त किण्वन सुनिश्चित होता है. यदि नमी की मात्रा इससे अधिक अथवा कम हो तो
किण्वन पर दुष्प्रभाव पड़ता है. सर्वप्रथम चारे को बारीक टुकड़ों में काट लिया जाता
है. खेत में से फसल काटने के बाद भी पौधों की पत्तियों में श्वसन क्रिया चलती रहती
है जिससे इनके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं. अतः चारे को कटाई के तुरंत बाद ही
‘साइलो’ पिट्स में स्थानातरित कर देना चाहिए. यदि बारिश के कारण फसल गीली हो गई हो
तो इसकी कटाई एक या दो दिन बाद ही करनी चाहिए.
चारे
की कटी हुई फसल को इकठ्ठा करके दबाया जाता है ताकि इसके बीच की सारी हवा को बाहर
निकाला जा सके. ध्यान रहे कि ‘लैक्टिक’ अम्ल उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया ऑक्सीजन
की अनुपस्थिति में ही किण्वन द्वारा लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करने में सक्षम होते
हैं. यदि साइलेज किसी बड़े गड्ढे में बनाई जानी है तो उसमें चारा भर के ट्रेक्टर
चला देना चाहिए ताकि अधिकतम दाब द्वारा इसकी सारी हवा बाहर आ जाए. अब इस चारे को पोलीथीन अथवा प्लास्टिक शीट से ढक कर कुछ वजन
जैसे टायर आदि रख दिए जाते हैं ताकि घास दबी रहे. साइलेज निर्माण हेतु विभिन्न
प्रकार के ‘साइलो पिट्स’ का उपयोग किया जा सकता है जैसे सुरंगनुमा, ट्रेंच, ‘कोरिडोर’
तथा ‘टावर-साइलो’ आदि. ये सभी ‘साइलो’ वायुरोधी होने चाहिएं ताकि इनमें किण्वन
द्वारा उपयुक्त गुणवत्ता की साइलेज प्राप्त की जा सके. साइलो-पिट्स में दबाई जाने
वाले चारा-फसल साफ़ सुथरी एवं मिट्टी रहित होनी चाहिए. मिटटी से बचाव हेतु गड्ढे के
तल पर एक ‘पोलीथीन शीट’ बिछानी चाहिए. इसके कारण साइलो-पिट में उत्पन्न होने वाला
लैक्टिक अम्ल मिट्टी में अवशोषित नहीं होता तथा इस प्रकार बेहतर गुणवत्ता की
‘साइलेज’ बनाई जा सकती है.
मक्का
के चारे से साइलेज बनाएँ
आजकल
डेयरी किसान पशुओं को मक्का चारे के रूप में खिला रहे हैं क्योंकि इसकी पैदावार
काफी अच्छी है. इसकी पाचन क्षमता बेहतर है तथा यह पशुओं को स्वादिष्ट भी लगता है.
मक्का की साइलेज से अन्य फसलों की अपेक्षा प्रति एकड़ अधिक मात्रा में खाद्य ऊर्जा
प्राप्त की जा सकती है जो आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक है. मक्का साइलेज द्वारा
इसके पोषक तत्त्वों जैसे नाइट्रोजन एवं फोस्फोरस का पुनःचक्रण सुगमता से हो जाता
है. जब मक्की के पौधे में शुष्क पदार्थों की मात्रा लगभग 30-35% हो जाए तो इसे
साइलेज हेतु उपयोग में लाया जा सकता है. मक्के के पौधे को धरती से लगभग 10-12
सेंटीमीटर की ऊंचाई पर काटना चाहिए.
यदि
एक से अधिक चारे की फसलें उपलब्ध हों तो इन सबको मिला कर भी साइलेज बनाई जा सकती
है. ऐसा करने से अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता वाले चारे को भी उपयोग में लाया जा सकता
है. यदि मक्का बोने के बाद सिंचाई हेतु पर्याप्त जल न मिले तो मक्के के छोटे पौधों
को भी साइलेज बनाने हेतु उपयोग में लाया जा सकता है, हालांकि इन परिस्थितियों में
इसकी पोषण क्षमता सामान्य से 10 या 15% तक कम हो सकती है. रेशों की पाचकता अधिक
होने के कारण इसे दाने के साथ दुधारू पशुओं को खिलाया जा सकता है. उच्च तापमान एवं
अकाल की स्थिति के कारण पौधों में नाइट्रेट का स्तर बढ़ जाता है किन्तु साइलेज
बनाने से इसकी मात्रा को 50% तक कम किया जा सकता है. जो मक्के की फसल पाले से खराब
हो रही हो, उसे भी साइलेज बनाने में प्रयुक्त किया जा सकता है.
थैलों
में साइलेज बनाएँ
खेतों
में बड़े साइलो पिट्स बनाने की तुलना में प्लास्टिक के बड़े-बड़े थैले कहीं सस्ते
पड़ते हैं. इन थैलों में आवश्यकतानुसार वांछित मात्रा में साइलेज बनाई जा सकती है.
इन थैलों में अन्य जीवाणुओं अथवा कवक का प्रवेश न होने से प्रोटीन एवं अन्य पोषक
तत्त्व व्यर्थ नहीं हो सकते. डेयरी किसान अपनी आवश्यकतानुसार इन थैलों को कहीं भी
ले जा कर उपयोग कर सकता है. थैले पूर्णतः बंद होने के कारण लैक्टिक अम्ल बाहर नहीं
निकलता तथा इसकी गुणवत्ता अच्छी रहती है. गड्ढों में से साइलेज निकालने हेतु
अतिरिक्त मजदूरी खर्च होती है जबकि थैलों से साइलेज निकालना एक दम आसान है. जितनी
साइलेज की आवश्यकता हो उतने ही थैले खोलने पड़ते हैं जबकि अन्य बंद किए गए थैलों की
साइलेज सुरक्षित रहती है. चारे को थैलों में भरने से पहले लगभग 3 सेंटीमीटर के
छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है ताकि हरी पत्तियों से अधिकतम शर्करा बाहर आ कर
किण्वन में सहायक हो सके. चारे की पट्टियों आदि पर कोई मिट्टी नहीं होनी चाहिए
क्योंकि इससे थैलों को बंद करने से पूर्व दबाया जाता है ताकि अंदर की सारी वायु
बाहर निकल जाए. इस प्रकार हवा निकाल कर थैलों को ‘सील’ करके रख दिया जाता है ताकि
इसमें लैक्टिक अम्ल पैदा होने से किण्वन क्रिया निरंतर चलती रहे. चारे को
छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने के लिए अधिक समय तक प्रतीक्षा करना उचित नहीं है
क्योंकि जीवाणु अथवा कवक नमी को आवश्यकता से अधिक घटाने हेतु सक्रिय हो सकते हैं.
अतः घास काट कर यथाशीघ्र ‘साइलो-पिट्स’ या ‘प्लास्टिक’ थैलों में स्थानांतरित कर
देनी चाहिए.
‘साइलेज’
के थैलों को चूहों आदि से बचा कर रखना चाहिए ताकि इनमें लैक्टिक अम्ल की मात्रा वांछित
स्तर पर बनी रहे. प्लास्टिक थैलों की गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए ताकि इनमें कोई
सुराख या ‘लीकेज’ न हो सके. आमतौर पर साइलेज हेतु खाद के पुराने प्लास्टिक थैले
उपयोग में लाए जाते हैं जिन्हें दो या तीन बार इस उद्देश्य हेतु उपयोग में ला सकते
हैं. चारा फसल काटने के 24 घंटों के भीतर ही साइलेज प्रक्रिया संपन्न हो जानी
चाहिए अन्यथा चारे की पोषण क्षमता में कमी आने लगती है. जिस चारे में शर्करा की
मात्रा अधिक होती है वह बेहतर साइलेज बनाने में समर्थ होता है. शर्करा की मात्रा
कम होने से चारा सड़ने लगता है तथा साइलेज बनाना असंभव हो जाता है. साइलेज बनने में
लगभग तीन सप्ताह का समय लगता है.
‘साइलेज’
कैसी हो?
‘साइलेज’
का रंग आमतौर पर पीला होता है परन्तु चारे के सड़ने से इसका रंग भूरा भी हो सकता है
जो ठीक नहीं है. इसमें लैक्टिक अम्ल की मात्रा 4-6% तक हो सकती है तथा पी.एच. 4 के
आस-पास होती है जिसकी जांच पी.एच. पेपर की सहायता से की जा सकती है. साइलेज में
फफूंद का होना अधिक शुष्क पदार्थों का परिचायक है जिससे इसकी गुणवत्ता प्रभावित
होती है. यह फफूंद रुमेन में जा कर विषाक्त पदार्थों को जन्म देते हैं जिससे
किण्वन एवं सामान्य पाचन क्रिया प्रभावित होती है. ‘साइलेज’ को फफूंद से यथासम्भव
बचाना चाहिए तथा फफूंदयुक्त साइलेज पशुओं को नहीं खिलानी चाहिए क्योंकि यह स्वास्थ्य
एवं उत्पादन की दृष्टि से हानिकारक होती है. यदि साइलेज का तापमान अधिक हो तो यह
ऑक्सीजन की उपस्थिति दर्शाता है. यदि इसमें से ‘सिरके’ जैसी महक आए तो यह उच्च
एसिटिक अम्ल की मात्रा इंगित करता है. इसका स्वाद सामान्यतः खट्टा होता है, कड़वी
साइलेज’ पशुओं को खिलने के लिए उपयुक्त नहीं है. आजकल 10 मेगा-जूल प्रतिकिलोग्राम
शुष्क पदार्थ अथवा इससे अधिक ऊर्जा से भरपूर साइलेज बनाना सम्भव है, क्योंकि
साइलेज में संपूरक मिलाने से इसकी गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है. अच्छी साइलेज की
गुणवत्ता इसकी उपचय ऊर्जा अर्थात पाचकता पर निर्भर करती है. यदि साइलेज की पाचकता
अधिक हो तो पशुओं के दुग्ध-उत्पादन में भी वृद्धि होती है.
साइलेज
कैसे खिलाएं?
पशुओं
को ताज़ी ‘साइलेज’ ही खाने हेतु देनी चाहिए. बची-खुची साइलेज को ‘फीडर’ से हटा कर
साफ़ कर देना चाहिए. इसकी खाद्य मात्रा पशुओं की शारीरिक आवश्यकता एवं उत्पादन
क्षमता पर निर्भर करती है. ‘साइलेज’ में सकल पचनीय पोषक तत्त्वों की मात्रा बहुत
अधिक होती है तथा इसे ‘हे’ या भूसे के साथ खिलाया जा सकता है. एक औसत पशु जिसका
भार लगभग 550 किलोग्राम हो, वह प्रतिदिन 25 किलोग्राम तक साइलेज खा सकता है जबकि
एक भेड़ या बकरी लगभग 5 किलोग्राम साइलेज आसानी से खा सकती है. पशुओं को इसके स्वाद
की आदत लगने में कुछ समय लग सकता है. कुछ पशु आरम्भ में कम साइलेज खाते हैं तथा
बाद में इसे सामान्य मात्रा में ग्रहण करने लगते हैं. यदि एक किलोग्राम में शुष्क
पदार्थ के आधार पर 200 ग्राम स्टार्च हो तो वह अच्छी गुणवत्ता की ‘साइलेज’ मानी
जाती है. अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि मक्के एवं घास से तैयार साइलेज को
बराबर मात्रा में मिला कर गायों को खिलाने से अधिक दुग्ध-उत्पादन प्राप्त होता है.
घास से तैयार साइलेज की तुलना में फलीदार पौधों की साइलेज खिलाने पर आहार
ग्राह्यता एवं दुग्ध-उत्पादन बढ़ जाता है. इस प्रकार उत्पादित दूध में
पोली-अनसेचुरेटिड अथवा असंतृप्त वसीय अम्लों की मात्रा भी अधिक होती है जो मानव
स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं.