Friday, July 22, 2016

यूरिया उपचार विधि से भूसे की गुणवत्ता बढ़ाएँ!


पशुओं को खिलाए जाने वाले चारे में भूसे का अहम योगदान होता है परन्तु इसमें इनके रख-रखाव हेतु पर्याप्त पोषक तत्त्व नहीं मिलते. यूरिया से उपचारित करने पर भूसे में रुक्ष प्रोटीन एवं ऊर्जा की मात्रा अधिक हो जाती है जिसे पशुओं को खिलाने पर दैहिक वृद्धि एवं दुग्ध-उत्पादन बढ़ जाता है.
यूरिया उपचार विधि क्या है?
विभिन्न अनुसंधान परीक्षणों के परिणाम के अनुसार 4% यूरिया का छिडकाव करके भूसे में लगभग 40% आर्द्रता के स्तर को उपयुक्त पाया गया है. यूरिया में मिलाने के लिए शुद्ध जल की आपूर्ति भी आवश्यक है. लगभग 25 क्विंटल भूसे में एक क्विंटल यूरिया और 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. यूरिया को सोखने के लिए सामान्यतः दो से तीन सप्ताह की अवधि पर्याप्त होती है परन्तु ठन्डे स्थानों पर अपेक्षाकृत अधिक समय देना पड़ सकता है. उपचारित भूसे को एक खड्डे में दबाया जाता है जिसका आकार लगभग दो मीटर लम्बा हो सकता है तथा इसकी चौड़ाई व गहराई एक मीटर रखी जा सकती है. इसे ऊपर से पोलिथीन ‘शीट’ द्वारा ढक दिया जाता है ताकि बाहरी नमी इसमें प्रवेश न कर सके. अधिक नमी में फफूंद उग जाती है तथा भूसा खराब होने का भय रहता है. इस तरह के खड्डे धूप से दूर होने चाहिएं. सूखे एवं अकालग्रस्त स्थानों पर यूरिया उपचार हेतु स्वच्छ जल की आपूर्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. इसके लिए तालाबों का गन्दा जल उपयोग में नहीं लाना चाहिए क्योंकि इसमें फफूंद उगने का खतरा बढ़ जाता है.
यह तकनीकी कैसे काम करती है?
सूक्ष्मजीवियों द्वारा यूरिया के अपघटन से अमोनिया उत्पन्न होती है. ये सूक्ष्मजीवी सामान्यतः नमी-युक्त भूसे में पाए जाते हैं जो बाद में यूरिएज़ एंजाइम उत्पन्न करते हैं. अमोनिया भूसे में अवशोषित हो जाती है जिससे इसमें नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है. इस उपचार विधि से भूसे में रेशों की पाचकता भी अधिक हो जाती है.
आरम्भ में इसे पशु कम खाते हैं परन्तु बाद में आदत होने पर ये चाव से खाने लगते हैं. इसे पहली बार खिलाते समय पशुओं के सामान्य चारे में मिला कर देना चाहिए. बाद में धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ा देनी चाहिए ताकि पशु इसे खाने में कोई अरुचि न दिखाएं. अमोनिया की तीव्र गंध से मुक्ति पाने के लिए उपचारित भूसे को कुछ समय खुली हवा में फैला देना चाहिए ताकि पशु इसे खाने में आना-कानी न करें.
इस तकनीकी का महत्त्व क्या है?
अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि यूरिया उपचारित भूसा खिलाने से बछड़ों की आहार ग्राह्यता 10 से 15% बढ़ जाती है तथा इनमें 100 से 150 ग्राम प्रतिदिन की  वृद्धि दर मिलती है. उपचारित भूसे के कारण पशुओं का दुग्ध-उत्पादन भी एक से डेढ़ लीटर प्रतिदिन तक बढ़ जाता है. यूरिया से उपचारित करने पर भूसे की पाचनशीलता बढ़ जाती है तथा इसे पशु बड़े चाव से खाते हैं. शुष्क-पदार्थ पाचनशीलता एवं सकल पचनीय पोषक तत्त्व 10 % तक बढ़ जाते हैं जबकि रुक्ष प्रोटीन की मात्रा बढ़ कर लगभग तीन गुणा हो जाती है.
यह तकनीकी तभी सफल हो सकती है जब इसे किसी पशु-पोषण विशेषज्ञ की देख-रेख में अपनाया जाए. पोषक भूसे हेतु यूरिया उपचार विधि में ज़रा-सी गलती भी पशुओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है. यूरिया को शुद्ध जल में घोलना और भूसे पर एक जैसा छिडकाव करना एक जटिल प्रक्रिया है परन्तु इसे मशीनों द्वारा अवश्य ही आसानी से किया जा सकता है. डेयरी किसानों के अनुसार यह अत्यधिक मेहनत वाला काम है जबकि इससे मिलने वाला लाभ बहुत सीमित है. यदि छिडकाव के बाद इस भूसे को ढक कर न रखा जाए तो यह खराब भी हो सकता है.
उपचारित भूसे की उपयोगिता
जिन स्थानों पर हरा चारा पर्याप्त मात्रा में मिलता है, वहां के किसान इस तकनीकी में विशेष रूचि नहीं दिखाते परन्तु सूखे और अकालग्रस्त स्थानों पर यह तकनीकी बहुपयोगी सिद्ध हो सकती है. हालांकि आमतौर पर हरे चारे के साथ भूसा मिला कर ही पशुओं को खिलाया जाता है परन्तु उपचारित भूसे को बिना मिलावट के ही खिलाया जा सकता हैं. उत्तर भारत में अधिकतर गेंहूं एवं धान की खेती की जाती है. धान की कटाई के बाद गेहूं के लिए खेत तैयार करना होता है, ऐसे में भूसे को फैलाने के लिए पर्याप्त खाली जगह उपलब्ध नहीं होती है. धन की पुआल के उपलब्ध होने के समय बरसीम भी आसानी  से मिल जाता है जिसे साधारण भूसे के साथ मिला कर भी दिया जा सकता है. किसानों द्वारा हर साल गेहूं एवं धान की फसलों  के बचे हुए अवशेषों को जलाने से न केवल प्रदूषण फैलता है बल्कि मिटटी में पाए जाने वाले लाखों लाभदायक कीट भी जल कर नष्ट हो जाते हैं. यदि फसलों के इन सूखे अवशेषों को यूरिया से उपचारित करके पशुओं को खिलाया जाए तो चारे की कमी से जूझ रहे पशुओं को एक बड़ी राहत मिल सकती है. उपचारित भूसा पर्याप्त पोषक तत्त्वों से भरपूर है तथा यह अकालग्रस्त स्थानों के पशुओं को आवश्यक पोषण आसानी से उपलब्ध करवा जा सकता है.
तकनीकी को अपनाने में बाधाएं
सीमान्त एवं भूमिहीन किसान इस तकनीकी को अपनाने में कोई रूचि नहीं लेते क्योंकि वे अपने पशुओं को बाहरी स्थानों पर घास चराने के लिए ले जाते हैं. ऐसे में उपचारित भूसे को तैयार करने हेतु वे कोई अतिरिक्त धन खर्च नहीं करना चाहते. डेयरी किसान अपने पशुओं से प्राप्त अधिकतर दूध को घर में ही उपयोग कर लेते हैं तथा ये लोग इसे बेचने में कम ही रूचि लेते हैं.  ऐसे किसानों को अपने पशुओं से अधिक दूध प्राप्त करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती. गाँवों के किसान यूरिया को विभिन्न फसलों हेतु खाद के रूप में प्रयोग करते हैं अतः उन्हें यूरिया को इस तरह काम में लेना स्वीकार्य नहीं है. अगर देखा जाए तो यह तकनीकी केवल उन स्थानों पर अपनाई जा सकती है जहां हरे चारे की कमी है तथा भूसा आसानी से उपलब्ध है. अगर पानी और सस्ते मजदूरों की उपलब्धता आसानी से हो तो किसान इस तकनीकी को आसानी से अपना सकते हैं. भूसे को अच्छी तरह मिलाने के लिए मजदूरों की आवश्यकता होती है जो कुछ महंगा लग सकता है. इस तकनीकी के अधिक लोकप्रिय न होने के लिए शायद यह भी एक कारण है.

यदि इस तकनीकी को सामूहिक रूप से अपनाया जाए तो उपचारित भूसा तैयार करने हेतु इस विधि पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है. गर्मियों में गेहूं का भूसा बहुतायत में उपलब्ध होता है जबकि इसकी मांग काफी कम होती है. इस भूसे को यूरिया द्वारा आसानी से उपचारित करके अधिक पोषक बनाया जा सकता है. उपचारित भूसे को खनिज मिश्रण के साथ खिलाने पर पशुओं की रख-रखाव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है. यदि सूखे की मार झेल रहे किसानों को इस कार्य हेतु अच्छी तरह शिक्षित एवं प्रशिक्षित किया जाए तो यह साधारण भूसे की पोषण क्षमता बढाने वाली एक सस्ती और बेहतर तकनीकी सिद्ध हो सकती है.

Tuesday, January 5, 2016

आवश्यक सूचना

सभी डेयरी किसानों एवं इस ब्लॉग के पाठकों को सूचित किया जाता है कि उनकी सुविधा हेतु एक नया ब्लॉग "डेयरी विकास पत्रिका" के नाम से dairyvikas.blogspot.in आरम्भ किया गया है. आप सबका यहाँ स्वागत है. आप अपनी सभी प्रतिक्रियाएं royashwani@gmail.com पर प्रेषित कर सकते हैं. आप चाहें तो इस ब्लॉग पर अपना नाम रजिस्टर करके इसके सदस्य बन सकते हैं. यहाँ जब भी कोई नई पोस्ट प्रकाशित होगी, आपको इसकी सूचना तुरन्त मिल जाएगी! यह ब्लॉग आपके स्मार्ट फोन पर भी एक आकर्षक फोर्मेट में देखा जा सकता है. आप सबके सहयोग का अभिलाषी हूँ! -अश्विनी कुमार रॉय.

Sunday, January 3, 2016

पशु परिवहन कैसे करें?

आजकल पशुओं को विभिन्न व्यावसायिक कारणों से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना पड़ता है. इन परिस्थितियों में पशुओं के चोटिल एवं तनावग्रस्त होने की संभावना सर्वाधिक होती है. पशुओं को अधिकतर ऐसे ट्रकों में लाद कर ले जाया जाता है, जिसमें खड़े रहने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं होती. इन्हें लंबे समय तक बिना पानी या चारे के यात्रा हेतु मजबूर किया जाता है, जिससे कई पशु रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. जो पशु अपने गंतव्य स्थल पर पहुँचते हैं, वे शारीरिक व मानसिक रूप से अत्याधिक तनाव-ग्रस्त हो जाते है, फलस्वरुप इन्हें सामान्य अवस्था में लाने के लिए कई दिन लग जाते हैं. अतः परिवहन के दौरान पशु कल्याण पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है.
पशु परिवहन में जोखिम
लगातार कई घंटे तक सफर करने से पशुओं का शारीरिक भार दस प्रतिशत तक कम हो जाता है. पशु परिवहन के दौरान इनकी रोग-प्रतिरोध क्षमता भी कम हो जाती है तथा ये जल्द ही रोगों से ग्रस्त होने लगते हैं. ऐसे पशुओं में मृत्यु दर भी अधिक होती है. एक अनुसंधान रिपोर्ट के अनुसार बछड़ों का रोग-प्रतिरोध तंत्र पूर्णतया विकसित नहीं होता है. ये लंबे सफर के दौरान अपना शारीरिक तापमान नियंत्रित नहीं रख पाते तथा ताप- एवं शीत-घात सहने में असमर्थ होते हैं. परिणाम-स्वरुप ये बछड़े परिवहन के बाद बीमार हो जाते हैं तथा इनमें मृत्यु दर बढ़ने की आशंका अधिक होती है.
आजकल पशुओं को भी मनुष्य की भांति तनाव-रहित एवं कल्याणकारी वातावरण में रहने का अधिकार है ताकि ये अधिक बेहतर ढंग से मानव-जाति के काम सकें. पशु कल्याण केवल कानूनी दृष्टि से आवश्यक है, परन्तु इसके कई मानवीय पक्ष भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं. पशुओं को परिवहन के लिए ले जाते समय निम्न-लिखित बातों पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है-
  • पशुओं के मालिकों एवं प्रबंधकों का यह दायित्व है कि जिन पशुओं को परिवहन द्वारा अन्यत्र ले जाना है, उनका स्वास्थ्य ठीक हो तथा वे यात्रा करने के लिए पूर्णतया सक्षम हों. 
  • पशुओं के परिवहन हेतु एक उपयुक्त वाहन की आवश्यकता होती है ताकि सफर के दौरान पशुओं को कोई परेशानी या तनाव न हो. 
  • परिवहन हेतु प्रयुक्त वाहन में प्रत्येक पशु हेतु न्यूनतम स्थान की उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है. इस सम्बन्ध में पशु चिकित्सक से परामर्श अवश्य ही कर लेना चाहिए. 
  • पशु-परिवहन से पूर्व मौसम अनुकूल होना चाहिए ताकि यात्रा के दौरान इन्हें स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का सामना न करना पड़े. 
  • यात्रा के दौरान पशुओं की देख-रेख के लिए एक प्रशिक्षित व्यक्ति का साथ होना अनिवार्य है. यदि कोई और व्यक्ति उपलब्ध न हो तो यह गाड़ी के चालक का दायित्व है कि वह समय-समय पर पशुओं पर नज़र बनाए रखे. 
  • यात्रा के दौरान निश्चित समय पर गाड़ी रोक कर पशुओं को आराम देना आवश्यक है. आपात परिस्थितियों में चिकित्सकीय उपकरण एवं परामर्श हेतु पशु-चिकित्सक उपलब्ध होना चाहिए. 
  • पशुओं के खरीदार व विक्रेता दोनों का ही यह कर्तव्य है कि पशुओं के लदान व इन्हें गंतव्य स्थल पर उतारने के लिए समुचित व्यवस्था उपलब्ध हो. 
  • पशुओं को परिवहन हेतु वाहन पर चढ़ाते व उतारते समय इनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए. पशुओं के लिए लंबे सफर के दौरान चारे व पानी की भी समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए. 
  • रोगी पशुओं का परिवहन अत्यंत सावधानी से होना चाहिए ताकि किसी बीमारी का फैलाव न हो. परिवहन से पहले व बाद में वाहन को कीटाणु-नाशक घोल द्वारा साफ़ किया जाना चाहिए.
·         यात्रा की अधिकतम समयावधि पशुओं की आयु एवं दैहिक अवस्था पर निर्भर करती है. अधिक आयु वाले तथा ग्याभिन पशु अधिक समय तक यात्रा नहीं कर सकते. परिवहन के अंतर्गत होने वाली घटनाओं का लिखित उल्लेख लोग-बुक में किया जाना आवश्यक होता है.
·         पशुओं के परिवहन से सम्बंधित सभी पक्षों के लिए यह अनिवार्य है कि इसके लिए निर्धारित सभी नियमों एवं मापदंडों का अनुपालन कड़ाई से किया जाए ताकि यात्रा के दौरान उच्च-स्तरीय पशु-कल्याण व्यवस्था को सुनिश्चित किया जा सके.
परिवहन हेतु वाहन
परिवहन हेतु प्रयुक्त होने वाला वाहन पशुओं के आकार, प्रकार एवं भार पर निर्भर करता है. इस वाहन के अंदर की ओर कोई भी तीखी लोहे की कीलें या छडें नहीं होने चाहिएं क्योंकि इनसे पशुओं को शारीरिक आघात हो सकता है. वाहन को खराब मौसम से बचाने के लिए पर्याप्त छत की व्यवस्था होनी चाहिए. वाहन की बनावट पशुओं के लिए हवादार व आरामदेह होनी चाहिए ताकि धूप के समय इसका तापमान अधिक न होने पाए. वाहन में यथा-सम्भव कम से कम कोने या गड्ढे हों ताकि सफर के दौरान वाहन में मल-मूत्र जमा न होने पाए तथा इसकी सफाई आसानी से हो सके. ज्ञातव्य है कि साफ़-सुथरे पशु-वाहनों में रोगों का संक्रमण रोकना भी सम्भव हो सकता है. ये वाहन यांत्रिक दृष्टि से मजबूत बनावट वाले होने चाहिएं. वाहन में मल-मूत्र की निकासी हेतु पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए ताकि पशुओं को गन्दगी से बचाया जा सके.  वाहन का फर्श चिकना नहीं होना चाहिए. यदि आवश्यक हो तो नीचे पुआल आदि बिछाई जा सकती है.  वाहन में पशुओं के लिए बैठने का स्थान, उनके बैठने या खड़े रहने की प्रवृत्ति से भी निर्धारित होता है. सामान्यतः सूअरों तथा ऊंटों को बिठा कर व गायों, भैंसों, और  घोड़ों को खड़ा करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है. खड़ी अवस्था में ले जाए जाने वाले पशुओं को अपना संतुलन बनाए रखने के लिए वाहन में पर्याप्त स्थान उपलब्ध होना चाहिए. जब पशु खड़े हों तो उनका सर वाहन की छत से नहीं टकराना चाहिए. वाहन में पशुओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि प्रत्येक पशु का निरीक्षण आसानी से किया जा सके. छोटे आकार के जंतुओं को क्रेट में ले जाने के कारण छत नीचे रहती है अतः इनका निरीक्षण कठिन होता है. ऐसे में इनके लिए लगातार लंबा सफर ठीक नहीं रहता. परिवहन के लिए पशुओं को ले जाते समय इनका बीमा करवाना भी ठीक रहता है. ऐसा करने से परिवहन के दौरान जोखिम का ख़तरा कम हो जाता है. यदि सफर सामान्य से अधिक लंबा हो तो इन्हें चारा व पानी दे कर ही परिवहन हेतु आगे ले जाना चाहिए.
एक जैसे पशु इकट्ठे ले जाएँ
एक ही ग्रुप में रहने वाले पशुओं को एक साथ परिवहन हेतु ले जाना चाहिए क्योंकि ये एक दूसरे के स्वभाव से परिचित होते हैं तथा इनमें एक प्रकार का सामाजिक सम्बन्ध भी स्थापित हो जाता है. आपस में लड़ने वाले पशुओं को कभी भी एक साथ न ले जाएँ. कम आयु के पशुओं को, अधिक आयु के पशुओं के साथ भी ले जाना ठीक नहीं होता. इसी तरह सींग वाले पशुओं के साथ, बिना सींग वाले पशुओं का परिवहन नहीं होना चाहिए. विभिन्न प्रजाति के पशुओं को एक साथ ले जाना भी हितकारी नहीं है क्योंकि इनके स्वाभाव एक दूसरे के विपरीत हो सकते हैं. जिन पशुओं को पूर्व में परिवहन का अनुभव होता है उन्हें अन्यत्र ले जाने में अपेक्षाकृत कम कठिनाई होती है. अस्वस्थ पशुओं का परिवहन नहीं होना चाहिए परन्तु यदि यह कार्य चिकित्सा हेतु किया जा रहा है तो स्वीकार्य होता है. अतः परिवहन हेतु पशुओं का चुनाव सावधानी-पूर्वक किया जाना चाहिए. अंधे, बीमार, कमज़ोर अथवा लंगड़ेपन जैसी व्याधियों से पीड़ित पशु परिवहन हेतु अनुपयुक्त होते हैं. शीघ्र ही ब
ब्याने वाले पशुओं को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाना चाहिए. इसी प्रकार जो पशु शारीरिक रूप से अत्यंत दुर्बल या बहुत मोटे हों, वे विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों व लंबे सफर के तनाव को नहीं झेल सकते. अतः ऐसे पशुओं का परिवहन भी नहीं होना चाहिए. परिवहन के दौरान पशुओं के व्यवहार का समुचित ध्यान रखना चाहिए. क्योंकि जो कार्य एक प्रजाति के पशु के हित में हो वह दूसरी प्रजातियों के पशुओं के भी हित में हो, यह आवश्यक नहीं है. इसलिए पशुओं के परिवहन हेतु योजनाबद्ध ढंग से कार्य होना चाहिए.
परिवहन हेतु लदान
पशुओं को वाहन में चढाते समय उत्तेजित नहीं करना चाहिए. लदान का कार्य किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की देख-रेख में ही संपन्न होना चाहिए. लदान के दौरान पशुओं से किसी प्रकार की मार-पीट नहीं होनी चाहिए अन्यथा उन्हें गहरी चोट लग सकती है. पशुओं को चढाने के लिए तैयार की गई ढलान व रास्ते इनके आकार एवं क्षमता के अनुकूल होने चाहिएं ताकि इन्हें चढ़ते समय कोई परेशानी न हो. वाहन में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए ताकि पशुओं को चढ़ते समय कोई डर न लगे. आवश्यकता से अधिक पशुओं का परिवहन करते समय उन्हें वाहन में ठूंसना नहीं चाहिए अन्यथा दम घुटने से इनकी मृत्यु भी हो सकती है. वाहन में लदान के समय किसी भी प्रकार का बल-प्रयोग अनुचित होता है. छोटे पशुओं जैसे बकरी आदि को उठा कर भी वाहन में चढाया जा सकता है परन्तु इन्हें पटकना नहीं चाहिए. लदान के बाद वाहन को अपेक्षाकृत कम गति पर ही चलाना चाहिए ताकि पशुओं को यात्रा के दौरान झटके आदि न लगें. एक दम ब्रेक अथवा गति देने से पशुओं को धक्का लगता है तथा ये चोटिल भी हो सकते हैं. अतः इस कार्य के लिए प्रशिक्षित वाहन चालक को ही कार्य पर लगाया जाना चाहिए. यात्रा के दौरान थोड़े-थोड़े अंतराल पर पशुओं को देखते रहना चाहिए. स्वस्थ पशुओं का परिवहन करते समय वाहन में किसी मृत पशु को नहीं ले जाना चाहिए. यात्रा के दौरान पशुओं की चारे व पानी की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहनी चाहिए. लंबे सफर के दौरान पशुओं को आराम करने का समय भी दिया जाना चाहिए क्योंकि ये लंबे सफर का तनाव झेलने में अक्षम होते हैं.
पशुओं को वाहन से कैसे उतारें?
गंतव्य स्थल तक पहुँचने तक पशु बहुत थक जाते हैं. इन पशुओं को सावधानीपूर्वक ही वाहन से उतारना चाहिए. किसी प्रकार की जल्दी पशुओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है. ध्यातव्य है कि पशुओं को नीचे उतारते समय वाहन व प्लेटफार्म का स्तर एक जैसा हो. प्लेटफार्म की ढलान में किसी तरह की फिसलन नहीं होनी चाहिए. पशुओं को उतारते समय अनावश्यक शोर-गुल नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पशुओं में खलबली मच सकती है. सफर के दौरान चोटिल हुए पशुओं को तुरंत ही चिकित्सक की सुविधा मिलनी चाहिए. ऐसे पशुओं को अन्य पशुओं से अलग रखा जाना चाहिए. पशु परिवहन के दौरान पशुओं में रोग संक्रमण होने की संभावना सर्वाधिक होती है अतः ऐसे वाहनों को प्रयोग के बाद कीटाणुनाशक घोल द्वारा साफ़ करना चाहिए ताकि अन्य पशुओं का परिवहन करते समय कोई रोग न फैलने पाए. वाहन से उतारने के बाद पशुओं की चिकित्सकीय जांच आवश्यक होती है ताकि प्रभावित पशुओं का समय पर इलाज किया जा सके. पशुओं को पर्याप्त चारा व पेय जल उपलब्ध करवाना चाहिए ताकि ये धीरे-धीरे अपने सामान्य जीवन की ओर लौट सकें. यूरोप में पशु परिवहन हेतु बनाए गए नियमों का पालन बड़ी कड़ाई से किया जाता है. यहाँ मांस के उत्पादन में प्रयुक्त छोटे जानवरों जैसे सूअर, बकरी व कम आयु वाले पशुओं के परिवहन हेतु अधिकतम समय सीमा छः घंटे ही निर्धारित की गई है जबकि गायों के लिए यह अवधि बारह घंटे तक हो सकती है.

परिवहन के दौरान पशुओं के साथ मानवीय व्यवहार न केवल विधि-संगत है अपितु पशु-कल्याण सुनिश्चित करने से इनकी उत्पादकता एवं कार्यकुशलता में भी सुधार होता है. हालांकि भारत में परिवहन के दौरान पशु कल्याण का कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जाता परन्तु यूरोप में इनके परिवहन के लिए दूरी एवं समय दोनों को ही यथा-सम्भव कम रखा जाता है. अतः परिवहन के समय पशु कल्याण सम्बन्धी व्यवस्था करने से डेयरी किसानों एवं पशु-पालकों को पूरा लाभ मिलता है. 

Monday, August 24, 2015

साइलेज – पशुओं के लिए एक पौष्टिक आहार

अधिकतर डेयरी किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए खेतों में चारा फसलें उगाते हैं परन्तु मौसमी परिवर्तनों के कारण सारा साल हरे चारे की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो पाती. ऐसे में किसान अपने पशुओं को गेहूं का भूसा एवं विभिन्न फसलों के सूखे अवशेष खिला कर ही काम चलाते हैं. इस प्रकार पशुओं को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति नहीं हो पाती तथा इनकी उत्पादकता कम होने लगती है. सम्पूर्ण वर्ष पौष्टिक चारे की उपलब्धता बनाए रखने हेतु या तो चारे को सुखा कर ‘हे’ बनाई जा सकती है अथवा गीली अवस्था में ही ‘साइलेज’ के रूप में भंडारित कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि ‘भूसा’ पकी हुई फसल के अवशेष से प्राप्त होता है जबकि ‘हे’ में चारे को दीर्घावधि संग्रहण हेतु सुखाया जाता है जिसमें पोषक तत्त्वों के नष्ट होने की संभावना अधिक होती है. परन्तु ‘साइलेज’ तैयार करने से चारे के सभी पोषक तत्त्व नष्ट नहीं होते. ‘हे’ बनाने के लिए विशेष प्रकार की मशीनरी की आवश्यकता पड़ती है जबकि ‘साइलेज’ तैयार करना कहीं आसान व सस्ता विकल्प है. ‘हे’ बनाने के लिए मोटे तने वाली फसलें जैसे मक्का आदि को पूर्ण रूप से सुखाने में काफी समय भी लगता है. ऐसे में ‘साइलेज’ द्वारा चारे के पोषक तत्त्वों को लंबे समय तक संग्रहीत करना कहीं अधिक सरल है. साइलेज बनाने की विधि छोटे एवं मझोले किसान आसानी से ‘अपना’ सकते हैं तथा हरे चारे की उपलब्धता न होने पर भी सारा साल अपने पशुओं को चारा आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं.
साइलेज क्या है?
‘साइलेज’ अचार की तरह एक ऐसा उत्पाद है जिसमें हरे चारे को दीर्घावधि तक संभाल कर रख सकते हैं. डेयरी किसानों के लिए साइलेज बनाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इससे शुष्क मौसम के दौरान भी चारे की उपलब्धता बनी रहती है. चारे की फसल को काटने का समय बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि पौधे के अधिक परिपक्व होने पर इसके पोषक तत्त्व कम होने लगते हैं. चारे को काट कर ऑक्सीजन रहित वातावरण में किण्वन हेतु भंडारित किया जाता है ताकि इसमें मौजूद सूक्ष्म जीवाणु लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करके पोषक तत्त्वों को दीर्घावधि तक संरक्षित कर सकें. चारे का परिरक्षण अम्लीय वातावरण में होना चाहिए. क्षारीय वातावरण में तैयार की गई साइलेज का स्वाद अच्छा नहीं होता तथा इसमें शर्करा एवं प्रोटीन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है.
साइलेज कैसे बनती है?
खेत से चारा काटने के बाद भी इसके पत्तों में श्वास क्रिया चलती रहती है. पौधों की कोशिकाएं वायुमंडल से ऑक्सीजन गैस लेकर शर्करा को कार्बनडाईऑक्साइड, उष्मा एवं जल में अपघटित कर देती हैं. परन्तु जब ये पौधे ‘साइलो-पिट्स’ या गड्ढों में दबे होते हैं तो इन्हें ऑक्सीजन नहीं मिलती तथा ये वायु की अनुपस्थिति में ही किण्वन करने लगते हैं जिससे लैक्टिक अम्ल बनता है जो ‘साइलो-पिट’ में अम्लीय वातावरण उत्पन्न करके चारे को लंबे समय तक संरक्षित करने में सहायक होता है.
किण्वन कैसे होता है?
‘साइलेज’ तैयार करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सूक्ष्म जीवाणुओं की ही है. ये जीवाणु केवल ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ही पनप सकते हैं. यदि चारे में ऑक्सीजन रह गई तो कुछ अन्य प्रकार के जीवाणु भी पनपने लगते हैं जो इसे नष्ट कर सकते हैं. ऑक्सीजन की उपस्थिति में पादप एन्जाइम एवं अन्य जीवाणु चारे के पोषक तत्त्वों को नष्ट कर देते हैं. जैसे ही साइलेज के गड्ढे में ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है वैसे ही लैक्टिक एसिड पैदा करने वाले जीवाणुओं की संख्या भी बढ़ने लगती है. अम्लता बढ़ने से शर्करा का अपघटन थम जाता है तथा घास दीर्घावधि तक भंडारण हेतु सुरक्षित हो जाती है.
इस प्रकार तैयार ‘साइलेज’ लगभग 5 वर्ष तक खराब नहीं होती तथा इससे पशुओं को बहुत लाभ हैं. पर्याप्त जानकारी के अभाव एवं अशिक्षा के कारण हमारे किसानों द्वारा इसका उपयोग अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाया है. हालांकि ‘हे’ बनाने पर सकल शुष्क पदार्थ के लगभग 30% पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं जबकि ‘साइलेज’ बनाने में केवल 10% पोषक तत्त्व ही व्यर्थ होते हैं. ‘साइलेज’ बनाने से खेत में सालाना 2-3 फसलें उगाना भी सम्भव है. साइलेज बनाते समय किण्वन के कारण पौधों द्वारा मिट्टी व खाद से अवशोषित ‘नाइट्रेट’ के स्तर भी कम हो जाते हैं. इसके भंडारण हेतु बहुत कम स्थान की आवश्यकता पड़ती है. मक्की के बीजों एवं भूसे की तुलना में इसके चारे से ‘साइलेज’ बनाने पर 30-50% तक अधिक पोषण प्राप्त होता है. अधिक नमी के कारण दो किलोग्राम ‘साइलेज’ की पोषण क्षमता लगभग एक किलोग्राम ‘हे’ के बराबर आंकी गई है. जिस स्थान पर ‘साइलेज’ तैयार होती है, उसके आस-पास ही इसे उपयोग में लाना लाभकारी होता है. इसे लम्बी दूरी तक ढोना सम्भव नहीं है क्योंकि लैक्टिक अम्ल के साथ बहुत से पोषक तत्त्व बाहर आ कर व्यर्थ हो सकते हैं. यह चारे की तुलना में भारी होती है, अतः पशुओं को परोसने में कुछ अधिक मेहनत करनी पड़ती है.
साइलेज हेतु साइलो-पिट्स कहाँ बनाएँ?
साइलेज हेतु पिट्स बनाने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करना आवश्यक है. इसके लिए ऎसे स्थान का चयन करना चाहिए जो पशुओं के आवास के निकट हो ताकि ‘साइलेज’ परोसने हेतु अधिक दूरी न तय करनी पड़े. ‘साइलो-पिट्स’ के स्थान पर जल-भराव की स्थिति नहीं होनी चाहिए. वर्षा के मौसम में पानी का बहाव इससे यथासम्भव दूरी पर होना चाहिए. ‘साइलो-पिट्स’ पर सूरज की किरणें सीधे नहीं पड़नी चाहिएं क्योंकि तापमान अधिक होने पर भी साइलेज खराब हो सकती है.
साइलेज हेतु चारा फसलें
किसी भी फसल को काटने का उपयुक्त समय इसके पकने से कुछ दिन पूर्व का होता है क्योंकि इस स्थिति में पोषक तत्त्वों की मात्रा अधिकतम स्तर पर होती है. परिरक्षण के दौरान कुछ पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, इसलिए साइलेज हेतु प्रयुक्त चारे में पोषक तत्त्वों की मात्रा अधिकतम होनी चाहिए. चारे को कुछ समय के लिए खुली हवा में फैलाया जाता है ताकि इसमें नमी की मात्रा 60-75% के बीच सीमित हो जाए. इतनी नमी पर उपयुक्त किण्वन सुनिश्चित होता है. यदि नमी की मात्रा इससे अधिक अथवा कम हो तो किण्वन पर दुष्प्रभाव पड़ता है. सर्वप्रथम चारे को बारीक टुकड़ों में काट लिया जाता है. खेत में से फसल काटने के बाद भी पौधों की पत्तियों में श्वसन क्रिया चलती रहती है जिससे इनके पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं. अतः चारे को कटाई के तुरंत बाद ही ‘साइलो’ पिट्स में स्थानातरित कर देना चाहिए. यदि बारिश के कारण फसल गीली हो गई हो तो इसकी कटाई एक या दो दिन बाद ही करनी चाहिए.
चारे की कटी हुई फसल को इकठ्ठा करके दबाया जाता है ताकि इसके बीच की सारी हवा को बाहर निकाला जा सके. ध्यान रहे कि ‘लैक्टिक’ अम्ल उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ही किण्वन द्वारा लैक्टिक अम्ल उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं. यदि साइलेज किसी बड़े गड्ढे में बनाई जानी है तो उसमें चारा भर के ट्रेक्टर चला देना चाहिए ताकि अधिकतम दाब द्वारा इसकी सारी हवा बाहर आ जाए. अब इस चारे  को पोलीथीन अथवा प्लास्टिक शीट से ढक कर कुछ वजन जैसे टायर आदि रख दिए जाते हैं ताकि घास दबी रहे. साइलेज निर्माण हेतु विभिन्न प्रकार के ‘साइलो पिट्स’ का उपयोग किया जा सकता है जैसे सुरंगनुमा, ट्रेंच, ‘कोरिडोर’ तथा ‘टावर-साइलो’ आदि. ये सभी ‘साइलो’ वायुरोधी होने चाहिएं ताकि इनमें किण्वन द्वारा उपयुक्त गुणवत्ता की साइलेज प्राप्त की जा सके. साइलो-पिट्स में दबाई जाने वाले चारा-फसल साफ़ सुथरी एवं मिट्टी रहित होनी चाहिए. मिटटी से बचाव हेतु गड्ढे के तल पर एक ‘पोलीथीन शीट’ बिछानी चाहिए. इसके कारण साइलो-पिट में उत्पन्न होने वाला लैक्टिक अम्ल मिट्टी में अवशोषित नहीं होता तथा इस प्रकार बेहतर गुणवत्ता की ‘साइलेज’ बनाई जा सकती है. 
मक्का के चारे से साइलेज बनाएँ
आजकल डेयरी किसान पशुओं को मक्का चारे के रूप में खिला रहे हैं क्योंकि इसकी पैदावार काफी अच्छी है. इसकी पाचन क्षमता बेहतर है तथा यह पशुओं को स्वादिष्ट भी लगता है. मक्का की साइलेज से अन्य फसलों की अपेक्षा प्रति एकड़ अधिक मात्रा में खाद्य ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है जो आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक है. मक्का साइलेज द्वारा इसके पोषक तत्त्वों जैसे नाइट्रोजन एवं फोस्फोरस का पुनःचक्रण सुगमता से हो जाता है. जब मक्की के पौधे में शुष्क पदार्थों की मात्रा लगभग 30-35% हो जाए तो इसे साइलेज हेतु उपयोग में लाया जा सकता है. मक्के के पौधे को धरती से लगभग 10-12 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर काटना चाहिए.
यदि एक से अधिक चारे की फसलें उपलब्ध हों तो इन सबको मिला कर भी साइलेज बनाई जा सकती है. ऐसा करने से अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता वाले चारे को भी उपयोग में लाया जा सकता है. यदि मक्का बोने के बाद सिंचाई हेतु पर्याप्त जल न मिले तो मक्के के छोटे पौधों को भी साइलेज बनाने हेतु उपयोग में लाया जा सकता है, हालांकि इन परिस्थितियों में इसकी पोषण क्षमता सामान्य से 10 या 15% तक कम हो सकती है. रेशों की पाचकता अधिक होने के कारण इसे दाने के साथ दुधारू पशुओं को खिलाया जा सकता है. उच्च तापमान एवं अकाल की स्थिति के कारण पौधों में नाइट्रेट का स्तर बढ़ जाता है किन्तु साइलेज बनाने से इसकी मात्रा को 50% तक कम किया जा सकता है. जो मक्के की फसल पाले से खराब हो रही हो, उसे भी साइलेज बनाने में प्रयुक्त किया जा सकता है.
थैलों में साइलेज बनाएँ
खेतों में बड़े साइलो पिट्स बनाने की तुलना में प्लास्टिक के बड़े-बड़े थैले कहीं सस्ते पड़ते हैं. इन थैलों में आवश्यकतानुसार वांछित मात्रा में साइलेज बनाई जा सकती है. इन थैलों में अन्य जीवाणुओं अथवा कवक का प्रवेश न होने से प्रोटीन एवं अन्य पोषक तत्त्व व्यर्थ नहीं हो सकते. डेयरी किसान अपनी आवश्यकतानुसार इन थैलों को कहीं भी ले जा कर उपयोग कर सकता है. थैले पूर्णतः बंद होने के कारण लैक्टिक अम्ल बाहर नहीं निकलता तथा इसकी गुणवत्ता अच्छी रहती है. गड्ढों में से साइलेज निकालने हेतु अतिरिक्त मजदूरी खर्च होती है जबकि थैलों से साइलेज निकालना एक दम आसान है. जितनी साइलेज की आवश्यकता हो उतने ही थैले खोलने पड़ते हैं जबकि अन्य बंद किए गए थैलों की साइलेज सुरक्षित रहती है. चारे को थैलों में भरने से पहले लगभग 3 सेंटीमीटर के छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है ताकि हरी पत्तियों से अधिकतम शर्करा बाहर आ कर किण्वन में सहायक हो सके. चारे की पट्टियों आदि पर कोई मिट्टी नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे थैलों को बंद करने से पूर्व दबाया जाता है ताकि अंदर की सारी वायु बाहर निकल जाए. इस प्रकार हवा निकाल कर थैलों को ‘सील’ करके रख दिया जाता है ताकि इसमें लैक्टिक अम्ल पैदा होने से किण्वन क्रिया निरंतर चलती रहे. चारे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने के लिए अधिक समय तक प्रतीक्षा करना उचित नहीं है क्योंकि जीवाणु अथवा कवक नमी को आवश्यकता से अधिक घटाने हेतु सक्रिय हो सकते हैं. अतः घास काट कर यथाशीघ्र ‘साइलो-पिट्स’ या ‘प्लास्टिक’ थैलों में स्थानांतरित कर देनी चाहिए.
‘साइलेज’ के थैलों को चूहों आदि से बचा कर रखना चाहिए ताकि इनमें लैक्टिक अम्ल की मात्रा वांछित स्तर पर बनी रहे. प्लास्टिक थैलों की गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए ताकि इनमें कोई सुराख या ‘लीकेज’ न हो सके. आमतौर पर साइलेज हेतु खाद के पुराने प्लास्टिक थैले उपयोग में लाए जाते हैं जिन्हें दो या तीन बार इस उद्देश्य हेतु उपयोग में ला सकते हैं. चारा फसल काटने के 24 घंटों के भीतर ही साइलेज प्रक्रिया संपन्न हो जानी चाहिए अन्यथा चारे की पोषण क्षमता में कमी आने लगती है. जिस चारे में शर्करा की मात्रा अधिक होती है वह बेहतर साइलेज बनाने में समर्थ होता है. शर्करा की मात्रा कम होने से चारा सड़ने लगता है तथा साइलेज बनाना असंभव हो जाता है. साइलेज बनने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगता है.
‘साइलेज’ कैसी हो?
‘साइलेज’ का रंग आमतौर पर पीला होता है परन्तु चारे के सड़ने से इसका रंग भूरा भी हो सकता है जो ठीक नहीं है. इसमें लैक्टिक अम्ल की मात्रा 4-6% तक हो सकती है तथा पी.एच. 4 के आस-पास होती है जिसकी जांच पी.एच. पेपर की सहायता से की जा सकती है. साइलेज में फफूंद का होना अधिक शुष्क पदार्थों का परिचायक है जिससे इसकी गुणवत्ता प्रभावित होती है. यह फफूंद रुमेन में जा कर विषाक्त पदार्थों को जन्म देते हैं जिससे किण्वन एवं सामान्य पाचन क्रिया प्रभावित होती है. ‘साइलेज’ को फफूंद से यथासम्भव बचाना चाहिए तथा फफूंदयुक्त साइलेज पशुओं को नहीं खिलानी चाहिए क्योंकि यह स्वास्थ्य एवं उत्पादन की दृष्टि से हानिकारक होती है. यदि साइलेज का तापमान अधिक हो तो यह ऑक्सीजन की उपस्थिति दर्शाता है. यदि इसमें से ‘सिरके’ जैसी महक आए तो यह उच्च एसिटिक अम्ल की मात्रा इंगित करता है. इसका स्वाद सामान्यतः खट्टा होता है, कड़वी साइलेज’ पशुओं को खिलने के लिए उपयुक्त नहीं है. आजकल 10 मेगा-जूल प्रतिकिलोग्राम शुष्क पदार्थ अथवा इससे अधिक ऊर्जा से भरपूर साइलेज बनाना सम्भव है, क्योंकि साइलेज में संपूरक मिलाने से इसकी गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है. अच्छी साइलेज की गुणवत्ता इसकी उपचय ऊर्जा अर्थात पाचकता पर निर्भर करती है. यदि साइलेज की पाचकता अधिक हो तो पशुओं के दुग्ध-उत्पादन में भी वृद्धि होती है.
साइलेज कैसे खिलाएं?

पशुओं को ताज़ी ‘साइलेज’ ही खाने हेतु देनी चाहिए. बची-खुची साइलेज को ‘फीडर’ से हटा कर साफ़ कर देना चाहिए. इसकी खाद्य मात्रा पशुओं की शारीरिक आवश्यकता एवं उत्पादन क्षमता पर निर्भर करती है. ‘साइलेज’ में सकल पचनीय पोषक तत्त्वों की मात्रा बहुत अधिक होती है तथा इसे ‘हे’ या भूसे के साथ खिलाया जा सकता है. एक औसत पशु जिसका भार लगभग 550 किलोग्राम हो, वह प्रतिदिन 25 किलोग्राम तक साइलेज खा सकता है जबकि एक भेड़ या बकरी लगभग 5 किलोग्राम साइलेज आसानी से खा सकती है. पशुओं को इसके स्वाद की आदत लगने में कुछ समय लग सकता है. कुछ पशु आरम्भ में कम साइलेज खाते हैं तथा बाद में इसे सामान्य मात्रा में ग्रहण करने लगते हैं. यदि एक किलोग्राम में शुष्क पदार्थ के आधार पर 200 ग्राम स्टार्च हो तो वह अच्छी गुणवत्ता की ‘साइलेज’ मानी जाती है. अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि मक्के एवं घास से तैयार साइलेज को बराबर मात्रा में मिला कर गायों को खिलाने से अधिक दुग्ध-उत्पादन प्राप्त होता है. घास से तैयार साइलेज की तुलना में फलीदार पौधों की साइलेज खिलाने पर आहार ग्राह्यता एवं दुग्ध-उत्पादन बढ़ जाता है. इस प्रकार उत्पादित दूध में पोली-अनसेचुरेटिड अथवा असंतृप्त वसीय अम्लों की मात्रा भी अधिक होती है जो मानव स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होते हैं.

Wednesday, July 22, 2015

शुष्क गायों को क्या खिलाएं?


शुष्क गायों से अभिप्रायः उन गायों से है जो अभी दूध नहीं दे रही हैं तथा अगले बयांत की प्रतीक्षा में हैं. यदि गायों को शुष्क-काल के आरम्भ में रेशेदार एवं कम ऊर्जा-युक्त आहार दें तो प्रसवोपरांत इनका स्वास्थ्य अच्छा रहता है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इनके पूर्णतया मिश्रित आहार में गेहूं का भूसा मिलाया जा सकता है ताकि पोषण में ऊर्जा का घनत्व कम किया जा सके. गायों में प्रसव से लगभग तीन सप्ताह पूर्व एवं तीन सप्ताह बाद का समय अत्यंत चुनौती-पूर्ण होता है. पर्याप्त आहार न मिलने से इन्हें प्रसवोपरांत दुग्ध-ज्वर, जेर न गिरना, गर्भाश्य की सूजन, जिगर संबंधी विकार एवं लंगड़ेपन जैसी अनेक व्याधियों से जूझना पड़ सकता है. चर्बी-युक्त जिगर एवं कीटोसिस के कारण स्वास्थ्य को और भी अधिक गंभीर ख़तरा हो सकता है. डेयरी फ़ार्म के लगभग आधे पशु अक्सर इस प्रकार के उपचय संबंधी विकारों से ग्रस्त हो जाते हैं.  जैसे ही प्रसव का समय समीप आता है, रक्त में प्रोजेस्टीरोन की मात्रा कम होने लगती है जबकि इस्ट्रोजन हारमोन की मात्रा बढ़ जाती है जिससे प्रसवकाल के आस-पास पशुओं की शुष्क पदार्थ ग्राह्यता कम हो जाती है जबकि इस समय गर्भाश्य में बढते हुए बच्चे को पोषण की सर्वाधिक आवश्यकता होती है.
प्रसवोपरांत दुग्ध-संश्लेषण एवं इसके उत्पादन को बढ़ाने हेतु लैक्टोज की आवश्यकता होती है जो ग्लूकोज से ही निर्मित होता है. आहार का अधिकतम कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट तो रुमेन में ही किण्वित हो जाता है, अतः अतिरिक्त ग्लूकोज-माँग की आपूर्ति जिगर द्वारा प्रोपियोनेट से संश्लेषित ग्लूकोज ही कर सकता है. यदि पशु को प्रसवोपरांत आहार कम मिले तो रुमेन में प्रोपियोनेट का उत्पादन कम होने लगता है. ग्लूकोज की कुछ आपूर्ति आहार से प्राप्त अमीनो-अम्लों द्वारा भी की जाती है. इसके अतिरिक्त शरीर की जमा चर्बी का क्षरण भी ग्लूकोज संश्लेषण हेतु किया जाता है. गत एक दशक से पशु-पोषण पर होने वाले अनुसंधान में गायों की उत्पादकता बढ़ाने एवं इन्हें स्वस्थ रखने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है. गायों की प्रसव-पूर्व शुष्क पदार्थ ग्राह्यता एवं अधिक दाना खिला कर आहार का ऊर्जा घनत्व बढ़ाया जा रहा है. इसके लिए पूर्णतया मिश्रित आहार को उपयोग में लाया जा रहा है ताकि प्रसवोपरांत गऊएँ शीघ्रातिशीघ्र अपनी खुराक बढ़ा सकें ताकि प्रसवोपरांत होने वाली स्वास्थ्य संबंधी विकारों से बचा जा सके.
शुष्क गायों की तुलना में नई बयाने वाली गायों को अधिक पोषण घनत्व वाला आहार दिया जाता है. प्रसव से एक या दो सप्ताह पहले गाय की खुराक 10-30% तक कम हो सकती है, अतः पोषण घनत्व बढ़ाने से शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कमी के बा-वजूद पशु को आवश्यक पोषक तत्व मिलते रहते हैं. उल्लेखनीय है कि प्रसव-पूर्व शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कमी के कारण पशु को लगभग 2% अतिरिक्त रुक्ष प्रोटीन की आवश्यकता होती है. गायों को शुष्क-काल के आरम्भ में दीर्घावधि तक आवश्यकता से अधिक ऊर्जा-युक्त आहार देने से संक्रमणकालीन कठिनाइयों में कोई कमी नहीं होती. यदि शुष्क-काल के अंतिम दौर में गायों को अधिक ऊर्जा वाला पूर्णतया मिश्रित आहार खिलाया जाए तो वे प्रसवोपरांत शुष्क पदार्थ ग्राह्यता कम होने से ऋणात्मक ऊर्जा संतुलन की स्थिति में पहुँच जाती हैं तथा इनके रक्त में गैर-एस्टरीकृत वसीय अम्लों तथा बीटा हाइड्रोक्सीबुटाइरिक अम्लों की मात्रा बढ़ जाती है. परन्तु जिन गायों को शुष्क-काल में गेहूं का भूसा मिला कर कम ऊर्जा-युक्त आहार खिलाया गया, उनकी स्थिति कहीं बेहतर पाई गई.
स्पष्टतः जो गाय शुष्क-काल में अत्याधिक ऊर्जा प्राप्त करती हैं उन्हें कीटोसिस, वसा-युक्त जिगर एवं अन्य स्वास्थ्य संबंधी विकारों का अधिक सामना करना पड़ता है. अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि शुष्क-काल के आरम्भ में अपेक्षाकृत कम ऊर्जा-युक्त या भूसा मिला हुआ आहार खिलाना तथा प्रसव के निकट अधिक ऊर्जा-युक्त आहार खिलाना अधिक लाभदायक हो सकता है. प्रसवोपरांत शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कमी तथा अन्य उपचय सम्बन्धी असंतुलन मुख्यतः गाय के मोटापे से नहीं बल्कि लंबे समय तक अधिक ऊर्जा-युक्त आहार खिलाने से होते हैं. जैसे-जैसे दुग्ध्काल आगे बढ़ता है वैसे-वैसे शुष्क-काल के आरम्भ में कम ऊर्जा-युक्त आहार के कारण मिले लाभ भी कम होने लगते हैं हालांकि इसका सर्वाधिक लाभ तो दुग्ध-काल की अच्छी शुरुआत ही है.
चारे में भूसा मिलाने से इसकी मात्रा बढ़ जाती है तथा धीमी गति से पचने वाले रेशे के कारण रुमेन का स्वास्थ्य बेहतर होता है जिससे यह सामान्य ढंग से कार्य करता है तथा भरा हुआ होने के कारण ब्यांत के समय उदार की स्थिति भी प्रभावित नहीं होती. कम ऊर्जा वाले अन्य आहार जैसे ‘जों’ में इस तरह के गुण नहीं मिलते. दीर्घावधि तक आवश्यकता से अधिक ऊर्जा मिलने से इंसुलिन का प्रभाव भी कम होने लगता है. शुष्क-काल के दौरान आहार में अधिक ऊर्जा देने से प्रसव-पूर्व एक सप्ताह में शुष्क-पदार्थ ग्राह्यता कम हो जाती है. अतः शुष्क-काल में गायों की ऊर्जा ग्राह्यता कम करके इनकी प्रसवोपरांत भूख में सुधार लाया जा सकता है. ऐसा करने से शरीर के रिजर्व वसा में कोई कमी नहीं होती तथा जिगर में वसा की जमावट भी नहीं होती.  इसलिए आहार का ऊर्जा घनत्व 1.25-1.35 मेगा कैलोरी प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ उपयुक्त रहता है.

उपर्युक्त तथ्यों का कदाचित यह अर्थ नहीं हो सकता कि गायों को आहार में ऊर्जा देनी ही नहीं चाहिए बल्कि इन्हें ऐसा पूर्णतया मिश्रित आहार खिलाएं जिसमें पर्याप्त पाचन योग्य प्रोटीन, विटामिन एवं खनिज-लवणों की मात्रा हो. भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार खिलाने से ऊर्जा की मात्रा पर नियंत्रण करने में कठिनाई होती है, अतः पूर्णतया मिश्रित आहार में भूसा मिलाने से ऊर्जा घनत्व को कम करना ही लाभदायक रहता है. शुष्क-काल के आरम्भ में ‘साइलेज’ के साथ शुष्क पदार्थ के आधार पर 20-30% कटा हुआ भूसा देने से ऊर्जा घनत्व 1.3 मेगा कैलोरी प्रति किलोग्राम शुष्क पदार्थ तक लाया जा सकता है. भूसे को 5 सेंटीमीटर से बारीक काटना चाहिए ताकि गाय इन्हें छोड़ कर अन्य आहार कणों को न खा जाए. सामान्यतः गायों को इस तरह के आहार खाने की आदत बनाने में एक सप्ताह तक का समय लग सकता है. सम्भव है इस दौरान इन पशुओं की दैनिक शुष्क पदार्थ ग्राह्यता में कुछ कमी आ जाए परन्तु बाद में यह सामान्य स्तर पर पहुँच जाती है. आहार में उपयोग किए गए भूसे की गुणवत्ता बेहतर होनी चाहिए. भूसा साफ़-सुथरा, सूखा एवं फफूंद से मुक्त होना चाहिए. आमतौर पर गेहूं का भूसा सर्वोत्तम रहता है क्योंकि यह रुमेन में अधिक देर तक रुक सकता है जिससे न केवल पाचन दक्षता में सुधार होता है बल्कि प्रसवोपरांत गाय के उदर की स्थिति भी सामान्य बनी रहती है. यदि पोषण के नज़रिए से देखा जाए तो भूसा महँगा लगता है परन्तु रेशों के बेहतर स्रोत एवं पाचक गुणों के कारण कोई अन्य चारा इसका स्थान नहीं ले सकता.

Tuesday, May 19, 2015

बढ़ती हुई बछड़ियों को क्या खिलाएं?

स्वस्थ बछड़ियों से सर्वोत्तम गाय तैयार करना किसी भी डेयरी फार्म का मुख्य उद्देश्य हो सकता है. बछड़ियों का आहार प्रबंधन बहुत कठिन कार्य है तथा इसके लिए सकल डेयरी बज़ट का लगभग 20% भाग खर्च हो जाता है. बछड़ियों के शीघ्र यौवनावस्था में आने से इन्हें कृत्रिम गर्भाधान द्वारा प्रजनित करवाया जा सकता है ताकि प्रथम ब्यांत पर इनकी आयु अधिक न होने पाए.  सम्पूर्ण शारीरिक विकास एवं भार वृद्धि हेतु बछड़ियों को अधिक ऊर्जा एवं प्रोटीन-युक्त आहार खिलाने की आवश्यकता होती है. यौवनावस्था से पहले दैहिक भार में औसत वृद्धि अधिक होने के कारण दुग्ध-ग्रंथियों का विकास धीमी गति से होने लगता है जो भविष्य में प्रथम दुग्ध-काल की उत्पादन क्षमता को कम कर देता है. यदि प्रथम ब्यांत पर पशु की आयु दो वर्ष से अधिक न हो तो दुग्ध-काल पर इस हानि का प्रभाव कम हो सकता है. अगर बछड़ियों में जन्म से लेकर प्रथम ब्यांत की आयु तक उपयुक्त अनुमान व मूल्यांकन द्वारा आहार प्रबंधन किया जाए तो हमें आदर्श डेयरी हेतु एक बेहतर गाय प्राप्त हो सकती हैं.
दुग्ध-उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए प्रथम ब्यांत पर होल्सटीन गाय की औसत आयु दो वर्ष या इससे कम तथा दैहिक भार 350-500 किलोग्राम तक हो सकता है बशर्ते इन्हें अधिक दाना या सान्द्र के साथ पौष्टिक चारा खिलाया जाए. संकर गायों में प्रथम ब्यांत पर दैहिक भार 300 किलोग्राम के लगभग हो सकता है. यौवनावस्था के बाद अधिक ऊर्जायुक्त आहार खिलाने से दुग्ध-ग्रंथियों के विकास में तेज़ी आती है तथा प्रथम ब्यांत के बाद मिलने वाले दूध की मात्रा भी बढ़ जाती है. अतः जन्म से यौवनावस्था तक होने वाले दैहिक एवं दुग्ध-ग्रंथियों के विकास एवं दुग्ध-उत्पादन क्षमता पर पोषण का प्रभाव सर्वाधिक होता है. दुग्ध-ग्रंथियों के विकास से ही दुग्ध-काल की सीमा तथा दुग्ध-उत्पादन क्षमता निर्धारित होती है. पशुओं में दुग्ध-ग्रंथियां भ्रूणावस्था से ही विकसित होने लगती हैं तथा जन्म के समय ही इनका बाह्य-विकास हो जाता है. इस अवस्था में दुग्ध-नलिकाएं एवं चर्बी तीव्रता से बढ़ती हैं जबकि कृपिकाओं का निर्माण नहीं होता. जन्म से तीन माह तक तथा एक वर्ष से गर्भावस्था के तीन माह तक दूध-ग्रंथियों का विकास दैहिक विकास दर के समान होता है परन्तु इसके बाद दुग्ध-ग्रंथियों का विकास तीव्र हो जाता है. होल्सटीन बछड़ियों में सबसे तेज़ दुग्ध-ग्रंथियों का विकास 3-9 महीने की आयु में होता है जबकि इनका दैहिक भार 100-200 किलोग्राम के बीच होता है. यदि इस समय इन्हें पर्याप्त पोषण न मिले तो इनकी दुग्ध-ग्रंथियां अर्धविकसित रह सकती हैं क्योंकि ग्रहण की गई ऊर्जा का अधिकतम भाग दैहिक विकास हेतु ही उपयोग हो जाता है.
गायों का दुग्ध-उत्पादन दुग्ध-कोशिकाओं की संख्या एवं इनकी स्रवण क्षमता पर निर्भर करता है. द्वितीय दुग्धकाल की तुलना में प्रथम दुग्धकाल के अंतर्गत दुग्ध-ग्रंथियों की उपचय स्थिति भिन्न होती है क्योंकि पशुओं द्वारा आहार के पोषक तत्त्व दुग्धावस्था एवं निरंतर दैहिक विकास हेतु उपयोग में लाए जाते हैं. बछड़ियों को उनकी इच्छानुसार जन्म से 50 दिन तक गाय का दूध पिलाने से दैहिक विकास तीव्रता से होता है तथा वे शीघ्रता से न केवल यौवनावस्था प्राप्त करती हैं बल्कि प्रथम दुग्धकाल में दूध भी अधिक देती हैं. बछड़ियों को दूध की बजाय 35o सेंटीग्रेड तापमान का कृत्रिम दुग्ध-संपूरक देने से भी दैहिक विकास तेज़ी से होता है तथा वे जल्दी यौवनावस्था में आ जाती हैं. बछड़ियों को बाल्टी से सीधे दूध पिलाने की बजाय कृत्रिम निप्पल द्वारा दूध पिलाना अधिक लाभदायक होता है. गाय का स्तन-पान करने वाली बछड़ियों में जन्म के बाद दैहिक भार में अधिक वृद्धि देखी गई है. दुग्ध-संपूरक में ऊर्जा एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने से बछड़ियों की दैहिक विकास दर में वृद्धि लाई जा सकती है. बछड़ियों के जन्म के 2-8 सप्ताह के बीच होने वाले तीव्र दैहिक विकास का दुग्ध-ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव देखा गया है. इस समय आहार में ऊर्जा एवं प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने से दुग्ध-कोशिकाओं का विकास दोगुनी गति से होता है.
पशुओं में यौवनावस्था का आगमन आयु की अपेक्षा इनके शारीरिक भार पर अधिक निर्भर करता है. होल्सटीन जैसी बड़ी नस्ल की बछड़ियाँ अक्सर 9-11 माह की आयु में यौवनावस्था प्राप्त करती हैं जब इनका भार 250-280 किलोग्राम के लगभग होता है. गायों की दुग्ध-उत्पादन क्षमता इनके जन्म एवं यौवनावस्था के बीच मिलने वाले पोषण पर निर्भर करती है, परन्तु यौवनावस्था से पूर्व अत्याधिक पोषण के कारण शरीर में चर्बी का जमाव बढ़ने से दुग्ध-कोशिकाओं का विकास धीमा हो सकता है. अतः बछड़ियों के शारीरिक भार में वृद्धि 800 ग्राम प्रतिदिन से अधिक नहीं होनी चाहिए. ऐसा लगता है कि बछड़ियों को अधिक ऊर्जा-युक्त आहार देने से यौवनावस्था तो शीघ्र आ जाती है परन्तु दुग्ध-ग्रंथियों का विकास दैहिक विकास की तुलना में कम होता है. यह स्थिति दुग्ध-कोशिकाओं की संख्या एवं डी.एन.ए. की मात्रा में कमी के कारण उत्पन्न होती है.  अतः इन परिस्थितियों में बछड़ियों को संतुलित आहार दिए जाने की अधिक आवश्यकता है ताकि प्रसवोपरांत इनकी दुग्ध-उत्पादन क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. बछड़ियों में अधिक प्रोटीन-युक्त आहार देने से शारीरिक विकास तीव्रता से होता है तथा मोटापे की समस्या भी नहीं होती. इस प्रकार पशुओं के आगामी दुग्ध-काल एवं दुग्ध-उत्पादन पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को रोका जा सकता है.
बछड़ियाँ आगामी दुग्ध-काल कों प्रभावित किए बिना 800 ग्राम प्रतिदिन की दर से 100-300 किलोग्राम तक शारीरिक भार प्राप्त कर सकती हैं. इसके लिए इन्हें 90-110 % तक सकल पाचक तत्वों एवं रुक्ष प्रोटीन की आवश्यकता होती है. पोषण में अधिक सान्द्र अथवा दाना देने से प्रथम दुग्ध-काल में दूध में वसा एवं इसकी मात्रा बढ़ाई जा सकती है परन्तु पशुओं को उनकी इच्छानुसार अधिक दाना देने से भी दूध का उत्पादन कम हो जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि दूध पैदावार हेतु बेहतर आनुवंशिक गुणों वाली बछड़ियों में मोटापा नियंत्रित करने की क्षमता भी अधिक पाई जाती है. यौवनावस्था के बाद तथा गर्भावस्था में उच्च-पोषण स्तर के कारण होने वाले अधिक दैहिक विकास दर का दुग्ध-ग्रंथियों एवं दूध के उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु पोषण गुणवत्ता के कारण प्रथम बार ब्याने वाली गायों में दुग्ध-ग्रंथियों के विकास एवं वृद्धि अवश्य प्रभावित होती है. प्रथम ब्यांत पर बेहतर दैहिक भार वाली गायों की दुग्ध-उत्पादन क्षमता भी अधिक होती है. यौवनावस्था के दौरान दिए गए उच्च-पोषण का प्रथम दुग्ध-काल के दूध उत्पादन पर तो कोई प्रभाव नहीं होता परन्तु इससे सम्पूर्ण दुग्ध-काल में हुई दैहिक भार-वृद्धि कम हो जाती है तथा गाय देरी से मद्काल प्रदर्शित करती है. यदि देखा जाए तो प्रथम दुग्ध-काल में अधिक दूध प्राप्त करने हेतु ब्यांत के समय गाय का दैहिक भार एवं यौवनावस्था के बाद उच्च-वृद्धि दर दोनों ही आवश्यक हैं.
ग्याभिन बछड़ियों को आमतौर पर कम ऊर्जा एवं अधिक रेशे वाले आहार खिलाए जाते हैं ताकि इनकी ऊर्जा-ग्राह्यता को नियंत्रित किया जा सके. प्रसवोपरांत दुग्ध-उत्पादन क्षमता को बनाए रखने हेतु ऐसा करना आवश्यक भी है. गर्भावस्था के 2-6 माह तक पोषण गुणवत्ता का प्रथम ब्यांत के बाद दुग्ध-उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु गर्भावस्था के अंतिम तीन माह में बेहतर आहार खिलाने से दूध अधिक मिलता है. पशुओं में दुग्ध-उत्पादन हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध करवाने के लिए उपयुक्त पोषण नीति आवश्यक है ताकि जनन क्षमता को अधिक बेहतर बनाया जा सके. बढ़ती हुई बछड़ियों को दैहिक रख-रखाव, विकास तथा गर्भावस्था हेतु प्रोटीन-युक्त आहार की आवश्यकता होती है. अनुसंधान द्वारा ज्ञात हुआ है कि 5-10 माह की बछड़ियों को अपेक्षाकृत कम मात्रा में रुक्ष प्रोटीन खिलाने से दुग्ध-ग्रंथियों का विकास अधिक हुआ. अतः 90-220 किलोग्राम दैहिक भार वाली बछड़ियों को 16% तथा 220-360 किलोग्राम भार वाली बछड़ियों को 14.5% रुक्ष प्रोटीन देने की सिफारिश की जाती है जबकि 360 किलोग्राम से अधिक भार होने पर उन्हें 13% रुक्ष प्रोटीन दिया जा सकता है. आहार नियंत्रण एक ऎसी प्रबंधन विधि है जिसमें सीमित आहार खिला कर पशुओं की पोषण-ग्राह्यता एवं दक्षता को बेहतर बनाया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि यह विधि अधिक रेशा-युक्त आहार खिलाए जाने की तरह ही प्रभावशाली हो सकती है तथा इसका दुग्ध-उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता. वैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि प्रथम ब्यांत की होल्सटीन गायों को प्रसव पूर्व कम ऊर्जायुक्त आहार देने पर दुग्ध-काल के पहले 8 महीनों तक कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया.

निष्कर्षतः संतुलित पशु पोषण दैहिक विकास एवं भार में वृद्धि के साथ-साथ दूध कोशिकाओं में वृद्धि एवं अधिक दुग्ध-उत्पादन हेतु अत्यंत आवश्यक है. आनुवंशिक चयन के कारण पशुओं में शारीरिक वृद्धि दर भी बढ़ती है जिससे इनकी रुक्ष प्रोटीन आवश्यकता अधिक हो जाती है. अतः तेज़ी से बढ़ने वाली बछड़ियों में रुक्ष प्रोटीन व ऊर्जा के मध्य अनुपात अधिक होना चाहिए.